Saturday 13 May 2017

रिव्यू-गुड़गुड़ गोते खाती ‘मेरी प्यारी बिंदु’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
एक लड़का एक लड़की। बचपन के दोस्त। गहरी दोस्ती मगर प्यार की बारी आई तो कन्फ्यूज। एक आगे बढ़ा तो दूसरा पीछे हट गया। दूसरे ने आगे बढ़ना चाहा तो कभी कैरियर आड़े गया तो कभी पेरेंट्स। ये दोनों कभी मिले, कभी बिछड़े, फिर मिले, फिर बिछड़े और अंत में मिल ही गए।

दोस्ती, प्यार, कैरियर और रिश्तों को लेकर युवा पीढ़ी के असमंजस पर हाल के बरसों में बेशुमार फिल्में आई हैं। इतनी ज्यादा कि कुछ समय बाद ये सब जेहन में गड्डमड्ड होने लगती हैं। तो, इस फिल्म में नया क्या है? नया है कहानी कहने का स्टाइल। नया है कोलकाता की पृष्ठभूमि। नया है इसमें पुराने हिट हिन्दी फिल्मी गीतों का कहानी में जिक्र। नया है इसका अंत। पर क्या यह नया होने के साथ-साथ रोचक भी है? जवाब है-जी नहीं, बिल्कुल नहीं।

बचपन से संग-साथ पढ़े-बड़े अभिमन्यु और बिंदु की इस कहानी में कहीं-कहीं कुछ अलग हट कर कहने की कोशिश होती दिखती है। अभि का बार-बार सामने वाली खिड़की में रहने वाली बिंदु की तरफ खिंचे चले आना, उसके प्रति अपनी चाहत को बनाए रखना भला भी लगता है लेकिन इस कहानी को कहने के लिए जिस तरह की पटकथा रची गई है और जिस उलझे हुए तरीके से बार-बार फ्लैश-बैक में जा-जाकर इसे दिखाया गया है, उससे इसकी रोचकता प्रभावित होती है। और अगर दो घंटे से भी छोटी फिल्म में आधा घंटा कहानी दिखानेकी बजाय सुनानेमें बीते, बीस मिनट गानों में और बाकी बचे समय में भी आप पहलू बदलते हुए उबासियां लेते रहें तो समझिए कि कसूर सिर्फ और सिर्फ फिल्म बनाने वालों का है।

आयुष्मान खुराना उर्जावान कलाकार हैं लेकिन फिल्म उनका भरपूर इस्तेमाल नहीं कर पाती। और यह उन्हें कपड़े कैसे दिए गए। ट्राउजर के साथ पोलो टी-शर्ट पहन कर कौन लड़का मुंबई में घूमता है? परिणीति चोपड़ा की भूमिका में ज्यादा उतार-चढ़ाव ही नहीं दिखता। हालांकि वह प्यारी लगती हैं और लुभाने वाला काम भी करती हैं। सहायक भूमिकाओं में आए कलाकार ज्यादा प्रभावित करते हैं।

फिल्म का गीत-संगीत अच्छा है। कई गीत सही मौके पर आकर असर बढ़ाते हैं। कहानी में पुराने सदाबहार गीतों का जिक्र भी लुभाता है। लेकिन अफसोस यही है कि यह लुभावनापन फिल्म के ज्यादातर हिस्से से लापता है। निर्देशक अक्षय राॅय के प्रयोगधर्मी होने का खामियाजा फिल्म के साथ दर्शक भी भुगतते हैं। फिल्म बीच भंवर में गुड़गुड़ गोते खाती हुई डूब जाती है और दर्शक बेचारा खुद को ठगा-सा महसूस करने लगता है।
सुनते हैं कि यशराज फिल्म्स में क्या बनेगा, कैसे बनेगा, यह सारे फैसले आदित्य चोपड़ा खुद करते हैं। अगर इस फिल्म की स्क्रिप्ट और स्टाइल पर भी आदित्य की पसंदगी की मुहर लगी है तो उन्हें समझ लेना चाहिए कि उनकी समझ साथ नहीं दे रही है। और अगर उन्होंने यह काम किसी और को सौंप रखा है तो उस शख्स की निष्ठा और काबिलियत पर उन्हें शक करना शुरू कर देना चाहिए।
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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