Saturday 20 May 2017

रिव्यू-आधी सूखी आधी गीली ‘हाफ गर्लफ्रैंड’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
इस फिल्म की नायिका को बारिश में भीगना अच्छा लगता है। दिल्ली के करोड़पति बाप की बेटी रिया सोमानी को अपने मां-बाप के बीच की कड़वाहट सुखा देती है और शायद इसीलिए वह खुद को बरसात में भिगो देना चाहती है। कॉलेज में साथ बास्केट-बॉल खेलने वाले बिहारी लड़के माधव झा से उसे अपनापन मिलता है तो वह खिलने-खुलने भी लगती है लेकिन जब माधव भी उससे वही मांगता है जो तकरीबन हर लड़का हर लड़की से चाहता है तो वह उसे झटक देती है। एक दिन वह गीला मन लिए चली जाती है तो इधर माधव बुझने-सूखने लगता है। बरसों बाद रिया लौटती है लेकिन इस बार हमेशा के लिए जाने के लिए।

चेतन भगत को आप भले ही अंग्रेजी का रानू या गुलशन नंदा मानें और उनके लिखे को लुगदी साहित्य, लेकिन सच यह है कि किताबों के प्रति नई पीढ़ी की दिलचस्पी में इजाफा करने का अच्छा-खासा श्रेय उनके लिखे उपन्यासों को ही जाता है। दिलचस्प और अपनी-सी लगने वाली कहानियों को बेहद रोचक शैली और साधारण भाषा में कहने के उनके हुनर के चलते उनके करोड़ों चाहने वाले हैं। हाफ गर्लफ्रैंडकी ही बात करें तो इसमें भरपूर रोचकता है और जिस तरह से एक हिन्दी टाइप कस्बाई लड़का दिल्ली की अंग्रेजी टाइप लड़की को टूट कर चाहता है, जिस तरह से वह अपने छोटे-से स्कूल को आगे बढ़ाने के लिए मेहनत करता है, वह सिर्फ प्रेरक लगता है बल्कि रोमांचक और रूमानी भी। यह उपन्यास पढ़ते समय लगता है जैसे पन्नों पर कोई फिल्म चल रही हो। मन में यह इच्छा भी उठती है कि इस पर फिल्म बन जाए तो मजा आए। लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद इस बात का अफसोस होता है कि कैसे एक अच्छी कहानी आखिर एक खराब पटकथा के कारण बर्बाद हो गई।
यह सही है कि यह पूरे का पूरा उपन्यास पर्दे पर उतार पाना मुमकिन नहीं है लेकिन क्या लेना है, कैसे लेना है, उसके पीछे क्या कारण देना है जैसी बातें तो पटकथा लेखक को ध्यान में रखनी ही होंगी और स्क्रिप्ट राइटर तुषार हीरानंदानी यहां बुरी तरह से चूकते नजर आए हैं। हिन्दी-अंग्रेजी की बहस को वह असरदार नहीं बना पाए। स्कूल में शौचालय की बात हल्केपन से कह गए। और तीन साल सेंट स्टीफेंस जैसे कॉलेज में रहने के बाद तो वहां के पेड़-पौधे भी अंग्रेजी बोलने लगते हैं, माधव इतना निकम्मा कैसे निकला? अंत में न्यूयॉर्क के उस क्लब के चौकीदार को उसने हिन्दी में ऐसा क्या सुना दिया कि वह राजी हो गया? उपन्यास में से कई अच्छे सीन नहीं लिए गए लेकिन अंत में दोनों के हमबिस्तर होने का सीन, जो उपन्यास में भी गैरजरूरी लग कर खटक रहा था, उसे तुम लेना नहीं भूले। यार, तुम ग्रैंड मस्तीही लिखो, प्रेम-कहानियों को यूं बर्बाद करो।

फिल्म की सबसे बड़ी कमी तो इसके नायक के किरदार में अर्जुन कपूर का होना है। बिहारी माधव झा के रोल को वह भरपूर कोशिश के बाद भी नहीं पकड़ पाए। असल में यह रोल उनके लिए था ही नहीं। 12वीं पास करके आए 18-19 साल के लड़के के रोल के लिए उन जैसा हट्टा-कट्टा और वजनी शख्स...? यह चुनाव ही गलत था। श्रद्धा को रोल हल्का मिला लेकिन उन्हें अब अपने किरदार में घुस जाने का हुनर गया है। कोई दमदार रोल आने दीजिए, इस लड़की ने अगर आसमान में छेद किया तो कहिएगा। विक्रांत मैसी और सीमा विश्वास को जरा और अच्छे सीन दिए जाने चाहिए थे। गीत अच्छे हैं। दो गाने तो बहुत प्यारे लगते हैं।

वैसे कसूरवार निर्देशक मोहित सूरी भी कम नहीं हैं। जो स्क्रिप्ट हाथ में आई उसे भी कायदे से फिल्माते तो वह ज्यादा असर छोड़ सकती थी। अब हो यह रहा है कि लड़के-लड़की में प्यार है लेकिन आपके पास दर्शाने के लिए सीन ही नहीं हैं। लड़की उदास है लेकिन उसकी उदासी से हमारा मन नहीं बुझता, इन दोनों के प्यार से हमारे भीतर गुदगुदी नहीं होती, इनका दूर जाना हमें नहीं कसकता और वह स्पीच, जिसे सुन कर बिल गेट्स माधव को 50 लाख दे गया, उस पर हमें 50 रुपए तक लुटाने का मन नहीं करता, तो यकीन मानिए जो आप लिख रहे हैं, जो आप बना रहे हैं, वह नीरस है, बोझिल है। असल में हाफ गर्लफ्रैंडअपने नाम की ही तरह आधी-अधूरी है। आधी अच्छी-आधी खराब, आधी दिलचस्प-आधी बोर, आधी सूखी-आधी गीली। आधे-अधूरे से काम चला सकें तो देखिए वरना इस उपन्यास को ही पढ़ लें, वह ज्यादा मजा देगा।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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