Friday 21 April 2017

रिव्यू-मात्र इत्तू-सी ‘मातृ’


-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
दिल्ली में एक मां-बेटी के साथ एक बड़े बाप के बेटे और उसके दोस्तों ने गैंग-रेप किया। बेटी मर गई, मां बच गई। मां ने उन लड़कों को चुन-चुन कर मारा, चुन-चुन कर मारा, चुन-चुन कर मारा...!

चलो, इस कहानी पर एक इमोशनल फिल्म बनाते हैं। नहीं सर, इस पर थ्रिलर बना देते हैं। अरे नहीं, इमोशनल फिल्म से लोग भावुक होंगे, देख कर रोएंगे। पर सर, थ्रिलर से उन्हें मजा आएगा, हम पैसे कमाएंगे। इमोशनल। नहीं थ्रिलर। बोला इमोशनल। नहीं सर, थ्रिलर। अच्छा चलो, आपकी मेरी, मिक्सर बनाते हैं।

तो जनाब, यह है लब्बोलुआब इस फिल्म का। इंटरवल तक इमोशनल होने का स्वांग भरती इस फिल्म में इमोशंस भी ऐसे नहीं हैं कि आप उन्हें देख कर भावुक हों, आपकी आंखें गीली हों या मुट्ठियां भिंच जाएं। फिर यह फिल्म थ्रिलर के रास्ते पर निकल पड़ती है। लेकिन यहां कसावट है, तार्किकता और ही वह पैनापन कि आप इससे बंधे रह सकें। मां उन लड़कों को मारती कम है और वे संयोग से ज्यादा मर रहे हैं। और फिर, यह फिल्म कहना क्या चाहती है, यह भी तो कहीं स्पष्ट नहीं होता।

प्रभावशाली बाप का बिगड़ा हुआ बेटा दिखाना है तो बाप को मुख्यमंत्री दिखा दो। अरे भलेमानस, शहर तो कोई और दिखा देते। दिल्ली में तो पुलिस मुख्यमंत्री के नियंत्रण में ही नहीं आती और यहां आप दिखा रहे हो कि पुलिस वाले उसके बेटे को बचा रहे हैं। केंद्र का कोई मंत्री दिखा देते। और हां, कहीं भी रेप हो, मर्डर हो या मुख्यमंत्री के घर की सिक्योरिटी, दिल्ली के 184 थानों में से सारे काम एक ही थाने का एक ही इंस्पैक्टर करेगा क्या? यार, प्लीज अब यह बेवकूफाना हरकतें बंद करो।

कमजोर कहानी, घिसी हुई स्क्रिप्ट, पैदल संवाद, लचर निर्देशन के बीच सिर्फ और सिर्फ रवीना टंडन की एक्टिंग ही सराहनीय है। पर मात्र उसके लिए मातृकौन देखना चाहेगा? और हां, यह मातृनाम भी इस पर कहीं फिट नहीं बैठ रहा है।

अब आई रेटिंग की बारी। तो चलिए इसके सब्जैक्ट के लिए इसे दो स्टार देते हैं। नहीं सर, थकी हुई फिल्म है एक स्टार काफी रहेगा। दो स्टार। एक स्टार। चलिए, आपकी मेरी...
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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