Friday 21 April 2017

रिव्यू-बेदम बेमजा बेजान बे-नूर

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
नूर रॉयचौधरी-जर्नलिस्ट, नहीं जोकर जर्नलिस्ट। ऐसा वह खुद को और साथी पत्रकारों को भी कहती है। खुद से बातें करती है। खुद की हर चीज से उसे दिक्कत है। अपनी लुक, अपने वजन, अपनी सैक्स-लाइफ, नौकरी... उसकी एक स्टोरी से बवंडर उठता है और फिर वह खुद उसे बवंडर की अगुआई करने के लिए उठ खड़ी होती है।

अब पहले तो सीधे-सीधे यह समझ लीजिए कि जिस फिल्म को लिखने, बनाने वालों के पास उसके लिए एक कायदे का नाम तक हो और वह उसके किसी किरदार के नाम पर ही फिल्म का नाम रख दें तो या तो कहानी इतनी दमदार होगी कि कोई नाम उसके साथ इंसाफ नहीं कर पाएगा (जैसे कि लैला-मजनू, वीर जारा वगैरह) या फिर इस कदर बेदम होगी कि उस पर कोई नाम फिट ही नहीं हो रहा होगा। यहां मामला नंबर दो है। फिर, अगर किसी फिल्म का केंद्रीय पात्र पूरी फिल्म में ही अपने बारे में नैरेशन करता रहे तो यकीन मानिए कि निर्देशक के पास कल्पनाशीलता का जबर्दस्त अभाव है क्योंकि फिल्म में कहानी दिखाई जाती है, किसी के नैरेशन से सुनाई नहीं जाती। हां, डॉक्यूमैंट्री हो तो यह चलता है।

वैसे यह फिल्म अपनी लुक से किसी डॉक्यूमैंट्री सरीखा फील ही देती है। पर कहीं यह सचमुच ही डॉक्यूमैंट्री बन जाए सो यह बार-बार नायिका की उस पर्सनल लाइफ में जा घुसती है जो बेहद बोरिंग हैं और जिसे देख कर खासी बोरियत होती भी है। सिगरेट छोड़ चुकी, हर दम शराब पीने को आतुर और किसी के भी बिस्तर में घुसने को तैयार नूर को पत्रकारिता की बरखा बनना है लेकिन बॉस है कि उससे सनी लियोन के इंटरव्यू करवा रहा है। (यहां सनी पर लेक्चर के बहाने निर्देशक किसे जस्टिफाई करना चाहते हैं?) पत्रकारिता और न्यूज रूम की हलचलों को लेकर थोड़ी और रिसर्च कर ली गई होती तो यह पक्ष तो मजबूत बनता। खैर, कमियों से भरी इस फिल्म में एक कमी यह भी सही। दरअसल यह फिल्म कहीं से भी प्यारी नहीं लगती, भावुक नहीं करती, हंसाती नहीं, गुदगुदाती नहीं, आंदोलित-उद्वेलित नहीं करती, चुभती नहीं... पकाती जरूर है।

सोनाक्षी सिन्हा का भी क्या कसूर। बेचारी को जैसा किरदार मिला, मेहनत से निभा दिया। एम.के. रैना जंचते हैं। बाकी सब तो...!

यह फिल्म पाकिस्तानी पत्रकार सबा इम्तियाज के बैस्ट सेलर उपन्यास कराची, यू आर किलिंग मी!पर आधारित है। पर इसे देख कर लगता है कि क्या वह उपन्यास भी इतना ही पकाऊ था?

डायरेक्टर सुनील सिप्पी जी, पहले आप को यह तय करना चाहिए था कि आप बनाना क्या चाहते हैं। कन्फ्यूजन आप लोगों के दिमाग में होती है और थिएटरों में जाकर भुगतना हमें पड़ता है। पर उससे भी पहले यह समझ लीजिए कि सुनील के स्पेलिंग सनहिल लिखने से अच्छी फिल्म नहीं बना करती।
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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