Saturday 15 April 2017

रिव्यू-न बेदम न बेजान फिर कहां फिसली ‘बेगम जान’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
प्रहारमें नाना पाटेकर कोर्ट से पूछते हैं-देश का मतलब क्या है? सड़कें, इमारतें, खेत-खलिहान, नदियां, पहाड़, बस इतना ही? और लोग, लोग कहां हैं?’

सच तो यह है कि देश की बात करते समय हुकूमतों ने कभी लोगों के बारे में सोचा ही नहीं। हमेशा देश के नाम पर जमीन के टुकड़ों को जीतने, कब्जाने और बांटने की ही बातें हुईं। सत्तर बरस पहले भी यही हुआ था जब चंद अक्लमंदोंने लोगों की परवाह करते हुए जमीन का बंटवारा कर मानवीय इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी को जन्म दिया था। अंग्रेजी अफसर रेडक्लिफ ने कागज पर बने नक्शे पर अपनी जिस नौसिखियाकलम से लकीर खींच कर हिन्दुस्तान-पाकिस्तान नाम के दो मुल्क तक्सीम कर दिए थे वहां के लोगों को आखीर तक यकीन था कि पंडित जी ऐसा नहीं होने देंगे या जिन्ना इसे नहीं मानेंगे। लेकिन बंटवारा हुआ और सड़कें, इमारतें, खेत-खलिहान, नदियां, पहाड़ सब बांट दिए गए। हां, लोगों की परवाह तब भी किसी ने नहीं की। यह फिल्म ऐसे ही चंद लोगों के बारे में है। लोग भी कौन-से, एक कोठे में रहने वाली चंद औरतें जिन्हें पाना तो हर कोई चाहता है, अपनाना नहीं।

रेडक्लिफ की खींची लकीर जब पंजाब को बांट रही थी तो एक जगह आड़े गया बेगम जान का कोठा जिसके बीचोंबीच से कांटों वाली तार गुजरनी थीं और ऐन वहीं पर चैक-पोस्ट बनाई जानी थी। मगर बेगम जान ने कोठा खाली करने से इंकार कर दिया और जब कहीं से कोई मदद नहीं मिली तो लड़कियों ने खुद हथियार उठा लिए और लड़ते-लड़ते मर गईं।

व्यवहार की बात करने वाले लोग पूछ सकते हैं कि आखिर कोठा छोड़ने में हर्ज की क्या था? कहीं और जमीन मिल जाती और यह धंधा तो कहीं भी चल निकलता। बात सही भी है। लेकिन फिल्म इस जगह को एक कोठे के तौर नहीं बल्कि बेगम जान के घर, उसके मुल्क के तौर पर दिखाती है जहां की वह रानी है और उसे लगता है कि बिना उसकी मर्जी के कोई कैसे उसे यहां से हटा सकता है। फिल्म दिखाती है कि लोगों की नुमाइंदगी का दम भरने वाली कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने बंटवारा कबूल करते समय इन लोगों को ही अनदेखा कर दिया था। उस वक्त की राजनीति, पुलिस, राजाओं की गिरती हैसियत, हिन्दू-मुस्लिम दंगों से फायदा उठाते लोगों जैसे मुद्दों पर टिप्पणियां करते-करते यह फिल्म समाज में औरतों की हालत और मर्दों के जुल्म पर भी ढेरों बातें करती है। लेकिन दिक्कत यही है कि एक तो यह जरूरत से ज्यादा बातें करती है और दूसरे, उन बातों के सपोर्ट में यह कुछ ज्यादा ही ड्रामा परोसने लगती है।

यह फिल्म बुरी नहीं है। बंटवारे के वक्त की राजनीतिक-कूटनीतिक चालों, हिन्दू-मुस्लिम के बीच फूट डाल कर ऐश करते लोगों, दंगों में हुए विनाश, टूटते विश्वास, औरतों के हालात, अपने ही घर-समाज में लड़कियों की स्थिति की बातें आपको छूती हैं लेकिन ये बातें महज संवाद बन कर कानों से गुजरती हैं, तीर बन कर दिल नहीं चीर पातीं।

बांग्ला में कई फिल्में बना चुके श्रीजित मुखर्जी की गिनती सेंसिबल फिल्मकारों में होती है। उनकी राजकहिनीमें भारत-बंगाल सीमा की बात थी लेकिन उस फिल्म को भी सिर्फ तारीफें ही मिली थीं, कामयाबी नहीं। उसी राजकहिनीको बेगम जानमें तब्दील करते समय श्रीजित ने जो बदलाव किए उनमें इस फिल्म के निर्माता महेश भट्ट की सोच और शैली की छाप साफ दिखाई देती है। चलिए, इसमें भी कोई हर्ज नहीं लेकिन कोठे को देश और वहां रहने वाली अलग-अलग राज्यों की लड़कियों को देशवासियों के रूपक के तौर पर पेश करते समय श्रीजित ने जो स्क्रिप्ट रची उसे वह उस स्तर तक नहीं उठा पाए जहां वह देखने वालों के दिलोदिमाग में हिलोरें पैदा कर पाती। तर्क और ड्रामा वाली बातों को छोड़ भी दें तो भी इस किस्म की कहानियां अगर दिलों में टीस, दिमाग में खदबदाहटें और आंखों में नमी ला पाएं तो क्या फायदा? सिर्फ दमदार संवादों से दमदार फिल्में नहीं बना करतीं, यह उन्हें समझना होगा।

बेगम जान के किरदार में विद्या बालन अपना पूरा जोर लगाती दिखती हैं। उन्होंने इस किरदार के गुस्से, नाराजगी, धमक को अपने भावों से जीवंत कर दिया है। बाकी लड़कियों में दो-एक ही याद रह पाती हैं तो वह इसलिए कि बाकी लड़कियों के किरदारों को अच्छे से खड़ा ही नहीं किया गया। पितोबाश त्रिपाठी असरदार काम करते हैं। नसीरुद्दीन शाह, आशीष विद्यार्थी, रजित कपूर, राजेश शर्मा, सुमित निझावन, विवेक मुशरान उम्दा ढंग से सपोर्ट कर गए। चंकी पांडेय अपने किरदार के प्रति समर्पित दिखे। हालांकि उनका किरदार बेढंगा था। मास्टर बने विवेक मुशरान का किरदार भटका हुआ नजर आया। इला अरुण लाजवाब हैं। वह इतिहास की जिन महान नारियों की कहानियां सुनाती हैं कहीं कहीं उनकी झलक इस फिल्म में दिखती है। दो गाने अनुकूल रहे जबकि होली वाला गीत ठूंसा हुआ लगा।

यह फिल्म बंटवारे पर उम्दा शॉर्ट-स्टोरी लिख चुके सआदत हसन मंटो और इस्मत चुगताई को समर्पित की गई है। फिल्म देखते हुए मंटो की कहानी टोबा टेकसिंहऔर उसका केंद्रीय पात्र पागलखाने में रहने वाला बिशन सिंह याद आता है जो हमेशा एक अनगढ़ वाक्य बोलता रहता है और बंटवारे के बाद सरहद पार जाने से इंकार करते हुए दोनों मुल्कों के बीच नो मैन्स लैंड पर दम तोड़ देता है। फिर श्याम बेनेगल की मंडीभी याद आती है जो एक कोठे और उसको खाली कराने की कहानी कहती है। लेकिन यह फिल्म मंडीकी बजाय मंटो के करीब है। बस, अफसोस यही है कि जहां बतौर लेखक श्रीजित इतिहास की सच्ची घटनाओं में एक काल्पनिक कहानी को कायदे से नहीं घुसा पाए वहीं बतौर निर्देशक भी यह कई जगह उनके हाथों से फिसलती-सी मालूम होती है।

फिल्म सचमुच बुरी नहीं है। बस, इसमें वह दम और जान नहीं है जो इसे अर्श तक ले जा पाते। बेहतरीन हो सकने वाले एक विषय की यूं बर्बादी दुखद है। टोबा टेकसिंहके बिशन के ही उस अनगढ़ वाक्य में कहूं तो यह फिल्म ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी बेगम जान दी दुर्र फिट्टे मुंहहै।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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