पहला सीन-गोआ के एक रईस ईसाई बिज़नेसमैन जैफ्री रोज़ारियो की बेटी के लिए एक हिन्दू
पंडित रिश्ता लेकर आया हुआ है। (आप चाहें तो सिर्फ इस बेतुके सीन को देखने के बाद ही
इस फिल्म को बंद करके किचन में पत्नी की या होमवर्क में बच्चों की मदद करने जैसा कोई
सार्थक काम कर सकते हैं। इस रिव्यू को भी आगे न पढ़ने का फैसला आप यहीं, इसी वक्त ले सकते हैं।
नहीं...?
चलिए,
आपकी मर्ज़ी,
हमें क्या, पढ़िए...) हां, तो जैफ्री उस पंडित की बेइज़्ज़ती करता है और पंडित मुंबई
सैंट्रल रेलवे स्टेशन पर कुली का काम करने वाले राजू को महा-रईस बता कर उसका रिश्ता
जैफ्री की बेटी से करवा देता है। ज़ाहिर है इस कहानी में कई उलझने होंगी जो अंत तक सुलझ
ही जाएंगी।
टैगोर की कहानियों पर अपने यहां अलग-अलग भाषाओं में कई फिल्में बन चुकी हैं। ज़ी-5 पर आई यह फिल्म टैगोर
की 1918 में लिखी एक शॉर्ट-स्टोरी
‘खोकाबाबूर प्रत्याबर्तन’ पर आधारित है जिस पर बांग्ला में 1960 में इसी नाम से उत्तम
कुमार और सुमिता सान्याल को लेकर एक फिल्म बन चुकी है। यह कहानी है एक अमीर आदमी के
घर में नौकर का काम करने वाले रायचंद यानी रायचू की। उसका काम है उस आदमी के छोटे-से
बच्चे की देखभाल करना। एक दिन रायचू उस बच्चे को घुमाने ले जाता है और बच्चा कहीं गायब
हो जाता है। नदी में उसके जूते मिलते हैं लेकिन लाश नहीं। कुछ लोगों का तो यह भी कहना
है कि बेऔलाद रायचू उसे चुरा कर अपने घर ले गया। उधर रायचू लगातार पश्चाताप की आग में
जल रहा है। अंत में वह इस से उबरने के लिए कुछ अनोखा ही कर बैठता है।