Saturday 25 February 2017

मिलिए ‘अनारकली’ के फकीर निर्देशक अविनाश दास से


-दीपक दुआ...

2012 के जून महीने की सड़ी हुई गर्मी में एक दुपहरी आउटलुकसे गीताश्री जी का फोन आया-अविनाश सिने बहस तलबकरवा रहे हैं। तुम्हारे मतलब की चीज है, जाओ। मैंने तुम्हारा नाम सुझा दिया है। नंबर नोट करो और अविनाश से बात कर लो।

सच कहूं तो तब तक मैं अविनाश के नाम से भी परिचित नहीं था। फोन किया, परिचय हुआ, उन्होंने बहस तलबमें आने का न्योता दिया और मैंने हामी भरते हुए पूछा कि फेसबुक पर आप किस नाम से मिलेंगे? बोले-वैसे तो अविनाश ही हूं लेकिन फेसबुक पर दो शब्दों का नाम चाहिए होता है सो अविनाश दास लिखता हूं।

दो-तीन दिन बाद 21 जून को महादेव रोड के ऑडिटोरियम में गैंग्स ऑफ़ वासेपुरका प्रैस-शो था। यहां अविनाश से मुलाकात भी हो गई। तब तक उनके बारे में यह जान चुका था कि टी.वी. की पत्रकारिता में नाम कमाने के बाद अब वह मौहल्ला लाइवचलाते हैं और सिनेमा के जबर्दस्त दीवाने हैं। इंटरवल में और फिल्म खत्म होने के बाद उनसे काफी बातें हुईं जिस दौरान उन्होंने बताया कि अब वह एक फिल्म बनाने की सोच रहे हैं।

23 जून को हम सिने बहस तलबमें मिले और एक-दूसरे को और करीब से जाना। इसके बाद फेसबुक, फोन और फिल्मों के प्रैस-शो में होने वाली मुलाकातों के जरिए हमारा संपर्क बना रहा। 2013 में अविनाश ने फिर सिने बहस तलबकी घोषणा की तो वक्ताओं में मेरा नाम भी डाल दिया जिसे हटवाने के लिए मुझे काफी चिरौरी करनी पड़ी कि मैं लिख लेता हूं, स्टेज पर नहीं बोल पाता। इस आयोजन को जुगाड़बना चुके निर्माता संदीप कपूर की कंपनी ने स्पॉन्सर किया था और अब यह साफ था कि अविनाश की बतौर निर्देशक पहली फिल्म के निर्माता भी संदीप ही होंगे।

फिल्म शुरू हुई तो इसका नाम अनारकली आरा वालीरखा गया था। फिल्म पूरी हुई और अब 24 मार्च को यह अनारकली ऑफ़ आराके नाम से रिलीज होने जा रही है। दोस्ती निभाने का सही वक्त जान पिछले दिनों अविनाश से फोन पर कुछ सवालों के जवाब लिए और बाकी उनकी इजाजत से फेसबुक पर दिए उनके जवाबों से, लीजिए पढ़िए-

-क्या है अनारकली ऑफ़ आराऔर यह कहना क्या चाहती है?
-यह फिल्म बिहार के आरा जिले की एक स्ट्रीट-सिंगर की कहानी है। एक ताकतवर व्यक्ति के हाथों वह यौन प्रताड़ना का शिकार बनती है और इसके बाद वह घुटने टेकने की बजाए उसके खिलाफ लड़ाई शुरू कर देती है। फिल्म कहना यह चाहती है कि स्ट्रीट-सिंगर जैसी औरतें भी एक जगह पर जाकर अपना स्टैंड लेती है और अपनी लड़ाई खुद लड़ती है। यह अंतिम कतार की एक औरत के आत्मसम्मान की लड़ाई है।

-सिनेमा बनाने का इरादा क्यों और कैसे हुआ?
-सिनेमा करने की बात बचपन से ही मन में थी लेकिन हालात साथ नहीं दे रहे थे सो मैं कुछ और कर रहा था। काफी पहले मुंबई आया भी था स्ट्रगल करने लेकिन लौट जाना पड़ा। तब पत्रकारिता में मौका मिला और मैं वह करने लगा। लेकिन चार-पांच साल पहले जब अंतिम तौर पर तय किया कि फिल्म बनानी है तो मैंने बाकी सब छोड़ दिया।

-इस फिल्म के निर्माता संदीप कपूर तक आप कैसे पहुंचे?
-संदीप कपूर से मेरी मुलाकात मनोज वाजपेयी ने करवाई थी। मनोज दिल्ली आए हुए थे और वह मेरे पुराने परिचित हैं, थिएटर के दिनों के। तो मैं उनसे मिलने के लिए गया था जहां संदीप भी आए हुए थे। एक बहुत ही सामान्य-सी मुलाकात थी। उसके बाद हम लोग संपर्क में रहे और बातचीत होती रही। फिर एक दिन बात उठी कि कोई बढ़िया कहानी हो तो बताओ। तब मैंने यह कहानी उन्हें सुनाई जो उन्हें पसंद आई तो बस, इसके बाद बात आगे बढ़ी और धीरे-धीरे बनती चली गई।

-संदीप की पहली फिल्म जुगाड़चल नहीं पाई, दूसरी प्रणाम वालेकुमरिलीज नहीं हो पाई। ऐसे में आप जैसे नए निर्देशक के साथ यह तीसरा जोखिम उन्होंने कैसे ले लिया?
-वैसे तो इस सवाल का जवाब संदीप ही दे सकते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि तीसरा जोखिम उन्होंने इसलिए लिया कि उन्हें कहानी बहुत पसंद आई क्योंकि इसकी कहानी और गाने बहुत अतरंगी हैं और मैं उन्हें जब सुनाता था तो पूरी एक्टिंग करके दिखाता था। लगता है, वह इसी से प्रभावित हो गए।

-पहले तो इस फिल्म का नाम अनारकली आरावालीरखा गया था ?
-जी हां, लेकिन वह नाम हमें नहीं मिल पाया। निर्माताओं की संस्था से हमें अनारकली ऑफ़ आरामिल पाया, यह भी हमारी एक जीत है कि नाम में आरा जरूर शामिल रहे। वरना हमें तो अनारकली-देसी पॉप और अनारकली- क्वीनजैसे नाम मिल रहे थे।

-इस कहानी का आइडिया आपको कैसे आया?
-यह करीब 2006 या 2007 की बात होगी जब मैंने यूट्यूब पर ताराबानो फैजाबादी का एक गाना सुना था-हरे हरे नेबुआ कसम से गोल गोल... इस वीडियो में कुछ सैकेंड के लिए ताराबानो का फुटेज है। यह एक बहुत ज्यादा इरोटिक गाना था लेकिन उनके चेहरे पर वैसा कोई भाव नहीं था। मैं चेहरे पर तैर रहे उस दर्द से जुड़ गया था। उनके चेहरे के उस सपाट भाव ने ही मुझे एक स्ट्रीट सिंगर की कहानी कहने के लिए प्रेरित किया। फिर साल 2010 या 2011 की बात होगी, मैं बिहार के गया शहर में एक फंक्शन में पहुंचा। वहां पॉपुलर सिंगर देवी भी मौजूद थीं जिनके साथ जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय के कुलपति ने कोई गलत हरकत की और देवी ने उनके खिलाफ आवाज उठा दी। काफी हंगामा हुआ, कुलपति को इस्तीफा देना पड़ा। तो मैंने इस घटना को ताराबानो के साथ जोड़ा और कहानी आगे बढ़ाई।

-यानी आप इसे एक सच्ची घटना पर बनी फिल्म कहेंगे?
-हर कहानी में कुछ सच, कुछ कल्पना होती है। इस फिल्म में भी ऐसा ही है। पर अगर मात्रा की बात करें, तो दाल में जितना नमक की मात्रा होती है, हमारी फिल्मी में सच की मात्रा बस उतनी ही है, बाकी कल्पनाओं का छौंक है।

-आरा की ही पृष्ठभूमि रखने के पीछे कोई खास वजह?
-आरा से मेरी अच्छी वाकफियत रही है। हालांकि मैं यू.पी. की सिंगर से प्रभावित हुआ था लेकिन यू.पी. की जुबान पर मेरी पकड़ नहीं थी इसलिए मैंने बिहार के इस शहर का चयन किया और मुझे लगता है कि यह एक बहुत सही फैसला था।

-तो इस फिल्म की शूटिंग आरा में क्यों नहीं की गई?
-चाहता तो मैं बिल्कुल था। लेकिन कुछ संसाधनगत वजहों से हमें दिल्ली से सौ किलोमीटर दूर अमरोहा में आरा का सेट बनाना पड़ा।

-इस फिल्म के लिए कलाकारों का चयन कैसे हुआ? स्वरा भास्कर, पंकज त्रिपाठी आदि ही क्यों लिए गए?
-हमारी फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर जीतेंद्र नाथ जीतू और मैं एक-दूसरे को पिछले बीस-बाइस साल से जानते हैं। इस फिल्म में उन्होंने मुझे असिस्ट भी किया है। वह मेरे मिजाज से और उससे भी ज्यादा बिहार से परिचित हैं। जीतू ने इस फिल्म के लिए बड़े अतरंगी और रियल किरदार चुने। स्वरा को इसलिए लिया क्योंकि स्वरा के अलावा इस किरदार को कोई और कर ही नहीं सकता था। इसी तरह से पंकज भाई ने आर्केस्ट्रा पार्टी के मालिक का जो किरदार निभाया है, उसके लिए भी सिर्फ और सिर्फ वही हमारे जेहन में थे। वैसे यह कहना ज्यादा सही होगा कि मैंने इन लोगों को नहीं बल्कि इन लोगों ने मेरे साथ काम करना चुना।

-फिल्म के संगीत के बारे में बताएं?
-यह एक गाने वाली लड़की की कहानी है तो जाहिर है कि म्यूजिकल फिल्म है। स्टेज परफॉर्मेंसेस के अलावा भी फिल्म में संगीत की एक बड़ी दुनिया है और खास बात यह है कि हमारे म्यूजिक डायरेक्टर रोहित शर्मा ने फिल्म का संगीत रचते हुए लोक यानी फोक की जमीन नहीं छोड़ी। फिल्म के मर्म को सामने में लाने में उनके संगीत की अहम भूमिका है। इस फिल्म का संगीत आपको एक नई दुनिया में ले जाएगा, यह मेरा वादा है।

-आप जो बनाना चाहते थे, उसे उस तरह से बना पाए?
-मुझे लगता है कि जैसा मैंने सोचा था, यह फिल्म उससे बेहतर बन पाई है। मेरे पास एक कहानी थी और मैं उस कहानी को सिनेमा के पर्दे पर कहने में कामयाब हुआ। यह बात मुझे भीतर से उत्साहित कर रही है। मैं इस उत्साह को आगे भी अच्छी रचनाधर्मिता में रूपांतरित करना चाहूंगा।

-इस फिल्म को दर्शक क्यों देखें?
-क्योंकि यह स्त्री-अस्मिता की कड़ी में आने वाली एक अहम फिल्म है। समाज के तथाकथित फूहड़ पायदान पर दिखने वाली एक स्त्री के स्वाभिमान की कहानी है, इसलिए इसे जरूर देखना चाहिए।

-क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि इस फिल्म के आने के बाद बाई जी लोगों और इस किस्म की स्ट्रीट-सिंगर्स को लेकर लोगों का नजरिया बदलेगा, खासतौर से भोजपुर क्षेत्र में?
-बाई जी लोगों के बहाने यह फिल्म हर स्त्री की कहानी है। मुझे लगता है कि एक फिल्मकार का काम कहानी कहना भर है। उससे निकलने वाले मैसेज पर अमल करने या करने के बारे में समाज को खुद सोचना और फैसला करना चाहिए। वैसे भी कोई भी कला अपनी बात ही कहती है। उसमें से समाज अपने लिए खुराक चुन ले तो चुन ले।

-फिल्म रिलीज होने से पहले आप के मन में अब क्या चल रहा है?
-मुझे लगता है कि फिल्म रिलीज होने के समय इंसान को फकीर हो जाना चाहिए क्योंकि उसका सब कुछ लोगों के पास जाने वाला होता है।

-अब आगे क्या?
-आगे भी सिनेमा ही बनाऊंगा। इन दिनों मैं एक लव स्टोरी लिख रहा हूं। यह पेस्टीसाइड्स की वजह से पंजाब के नष्ट हुए खेतों और उसकी वजह से मरते हुए गांवों के बैकड्रॉप में एक प्रेम-कहानी है। इसी साल यह फिल्म फ्लोर पर जानी है।
(इस लेख के अंश हिन्दी दैनिक हरिभूमिमें 25.02.2017 को प्रकाशित हुए हैं।)