Wednesday 5 June 2019

रिव्यू-बुलंद ‘भारत’ की टाइमपास तस्वीर

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
ईद के मौके पर सलमान खान की औसत किस्म की फिल्मों को उनके चाहने वाले इतना ज़्यादा चला देते हैं कि लगता है कि न तो सलमान और न ही उन्हें लेकर फिल्म बनाने वाले औसत से ऊपर उठने की सोचते होंगे। अब इसी फिल्म को लीजिए। कहने को इसमें एक दक्षिण कोरियाई फिल्म से कहानी लेकर उसे भारतीय रंग-ढंग में ढाला गया है। लेकिन यह रंग-ढंग कई जगह इतना बेरंग और बेढंगा-सा हो जाता है कि आप उकताने लगते हैं। यूं इसमें वो सब कुछ है जो सलमान की फिल्मों में होता है और जो एक आम हिन्दी मसाला फिल्म में होना चाहिए, लेकिन इस सब कुछ में वो गहराई नहीं है जो आपको इसमें गोते लगाने को मजबूर कर दे।

सन् 47 में भारत-पाक बंटवारे के वक्त पाकिस्तान में अपनी बेटी को ढूंढने के लिए छूट गए पिता ने आठ साल के बेटे भारत से वादा लिया था कि वह पूरे परिवार का ख्याल रखेगा। इस वादे को निभाते हुए भारत बड़ा होता है। उसके साथ-साथ यह देश भी आगे बढ़ता है, बदलता है। लेकिन भारत नहीं बदलता। वह आज भी पीछे छूट गए अपने बाबू जी, अपनी बहन को तलाश रहा है। वह आज (सत्तर की उम्र में) भी अपने परिवार का ख्याल रखने की खातिर कुंवारा बैठा है। क्यों भई, शादी करके परिवार का ख्याल नहीं रखा जा सकता क्या?

इस फिल्म को एक शख्स और एक देश की एक साथ यात्रा के तौर पर प्रचारित किया जा रहा था। कायदे से इसे ऐसा ही होना भी था। लेकिन फिल्म में सिर्फ इस शख्स की यात्रा दिखाई है और वह भी उथले अंदाज़ में क्योंकि यात्रा के दौरान सिर्फ रास्ते और पड़ाव ही नहीं आते, बदलाव भी आते हैं और वो इस शख्स में नहीं आ पाए। देश की यात्रा के नाम पर भी निर्देशक अली अब्बास ज़फर ने सिर्फ सतही तौर पर संदर्भों का इस्तेमाल किया है और यहां भी वह समय और परिवेश में तार्किकता बनाए रखने में चूक गए। पंजाब और पंजाबी परिवारों की बातों-गानों में पंजाबी भाषा का पुट नहीं, और जब विदेश में गाने की बारी आई तो हीरो को याद आया तो सिर्फ पंजाबी गाना...!

इस फिल्म में कमियां और खूबियां एक साथ चलती हैं। किसी सीक्वेंस को लेकर आप बहुत उत्साहित होने ही लगते हैं कि अगला सीक्वेंस आपके उत्साह पर पानी फेर देता है। किसी समय आप बोर होकर पहलू बदल ही रहे होते हैं कि अचानक कोई बढ़िया सीन आकर आपका ध्यान खींच लेता है। यही कारण है कि यह फिल्म न तो आपको बहुत ऊंचाई तक ले जा पाती है और न ही आपको स्क्रिप्ट के उन गड्ढों में ज़्यादा देर तक गिरे रहने देती है जो इसमें बहुत सारे हैं और बार-बार हैं। फिल्म की लंबाई, इसका ढीला संपादन इसका कमज़ोर पक्ष है। बहुतेरे सीन हैं जिन्हें बेवजह खींचा गया लगता है। खासतौर से अंत में एक भावुकता भरी ऊंचाई को छू चुकी फिल्म जिस तरह से गोता खा कर मैदान में औंधे मुंह गिरती है, वह निराश करता है। हां, बैकग्राउंड म्यूज़िक बहुत अच्छा है, प्रभावी है और फिल्म के असर को गाढ़ा बनाता है। गाने कहीं प्यारे लगते हैं तो कहीं थिरकाते भी हैं। इन्हें लिखते समय अगर समय और परिवेश के मुताबिक बोलों का इस्तेमाल किया जाता तो ये और प्रभावी हो सकते थे।

पिछले साल ‘रेस 3’ की समीक्षा में मैंने लिखा था कि फिल्म में नॉन-एक्टर्स की जमात खड़ी है। लेकिन इस फिल्म में तमाम बड़े-बड़े एक्टर लिए गए हैं। एकदम उम्दा एक्टिंग कर सकने वाले। लेकिन उन्हें किरदार तो छोड़िए, सीन तक नहीं दिए गए। जब दिशा पाटनी, कश्मीरा ईरानी, कुमुद मिश्रा, शशांक अरोड़ा, सोनाली कुलकर्णी, सतीश कौशिक जैसों को फिल्म जूनियर आर्टिस्ट सरीखा बना दे तो मामला और माजरा दोनों गड़बड़-से लगने लगते हैं। सलमान ने अपनी उम्र के हर मोड़ को खुल कर निभाया है। सत्तर की उम्र में उनके भक्तों की खातिर उनसे फाइटिंग भी करवाई गई है। सुनील ग्रोवर को जब-जब खुल कर खेलने का मौका मिला, वह कलाकारी दिखा गए। बृजेंद्र काला और आसिफ शेख जंचे, तब्बू भी। जैकी श्रॉफ बेहद प्रभावी रहे। एक्टिंग के मामले में पूरी फिल्म में सबसे ज़्यादा असर उन्होंने ही छोड़ा। कैटरीना कैफ ने भी अपने किरदार को समझते हुए असरदार काम किया। पर्दे पर जब-जब सलमान और कैटरीना साथ दिखे, गज़ब लगे।

सलमान-कैटरीना की कैमिस्ट्री लुभाती है, फिल्म के हल्के पल हंसाते हैं, भावुक पल आंखें भी नम करते हैं। खासतौर से बंटवारे के सीन और बरसों बाद बिछड़ों के मिलने की घटनाएं। बावजूद इसके यह फिल्म भारत जैसे भारी-भरकम नाम को नहीं बल्कि सलमान खान नाम के हीरो की रंग-बिरंगी इमेज को ही भुनाती-दिखाती है जो अब औसत किस्म की फिल्मों का पर्याय हो चुका है। जिसके चाहने वाले भी उससे उम्दा नहीं बल्कि टाइमपास मनोरंजन की उम्मीद रखते हों तो भला वो भी क्या करे?
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

8 comments:

  1. देखा जाए तो भारत सब्जेक्ट ही ऐसा है जिस पर खरा उतरना ही आसान नहीं ..वो तो मनोज कुमार थे जो शहीद में भगत सिंह ही लगे और फिल्म भगतसिंह ही लगी...आपके रिव्यु में सच्चाई है क्योंकि हम और आप भारत से वाकिफ हैं...ये अच्छी बात है कि सलमान का स्टारडम आज भी मेहनत वसूल लेता है.मगर कहानी सलमान नहीं बन सकती उसे तो असरदार होना ही था ??

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    1. बहुत सही बात कही आपने... शुक्रिया...

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  2. देखा जाए तो भारत सब्जेक्ट ही ऐसा है जिस पर खरा उतरना ही आसान नहीं ..वो तो मनोज कुमार थे जो शहीद में भगत सिंह ही लगे और फिल्म भगतसिंह ही लगी...आपके रिव्यु में सच्चाई है क्योंकि हम और आप भारत से वाकिफ हैं...ये अच्छी बात है कि सलमान का स्टारडम आज भी मेहनत वसूल लेता है.मगर कहानी सलमान नहीं बन सकती उसे तो असरदार होना ही था ??

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  3. Please dont waste your money and time hall me ja k sone se acha ghar me so lo.....

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  4. ईद पर "भारत" नाम ओर बंटवारे की याद को भुनाने के चक्कर में पैसा और समय बर्बाद किया ....

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    1. रिव्यू पर भरोसा करते तो ये सब बच जाता न...

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  5. Salman Khan movie ki script kab padhega

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