Wednesday 22 November 2017

रिव्यू-कड़वी है मगर जरूरी है

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
कड़वी हवाका एक सीन देखिए। क्लास के सब बच्चे एक लड़के की शिकायत करते हुए कहते हैं कि मास्टर जी, यह कह रहा है कि साल में सिर्फ दो ही मौसम होते हैं-गर्मी और सर्दी। मास्टर जी पूछते हैं-बरसात का मौसम कहां गया? जवाब मिलता है-मास्साब, बरसात तो साल में बस दो-चार दिन ही पड़त...!यह सुन कर सब बच्चे हंस पड़ते हैं। इधर थिएटर में भी हल्की-सी हंसी की आवाजें फैलती हैं। लेकिन इस हल्के-फुल्के सीन में कितना बड़ा और कड़वा सच छुपा है उसे आप और हम मानते भले हों, अच्छे से जानते जरूर हैं। बचपन में स्वेटर पहन कर रामलीला देखने वाली हमारी पीढ़ी आज दीवाली के दिन कोल्ड-ड्रिंक  पीते हुए जब कहती है कि अब पहले जैसा मौसम नहीं रहा, तो यह उस सच्चाई का ही बखान होता है जिसे जानते तो हम सब हैं, लेकिन उसके असर को मानने को राजी नहीं होते। नीला माधव पांडा की यह फिल्म हमें उसी सच से रूबरू करवाती है-कुछ कड़वाहट के साथ।

कहानी बीहड़ के एक ऐसे अंदरूनी गांव की है जहां मौसम की मार के चलते हर किसान पर कर्ज है जिसे वापस करने की कोई सूरत देख किसान एक-एक कर खुदकुशी कर रहे हैं। बैंक के कर्ज की वसूली करने वाले गुनु बाबू को लोग यमदूत कहते हैं क्योंकि वह जिस गांव में जाता है वहां दो-चार लोग तो मौत को गले लगा ही लेते हैं। गुनु बाबू के लिए उसके क्लाइंटचूहे हैं। ऐसे में एक अंधा बूढ़ा अपने बेटे के लिए गुनु बाबू से एक अनोखा सौदा कर लेता है। पर क्या कड़वी हवा किसी को यूं ही छोड़ देती है?

इस किस्म की फिल्मों के साथ अक्सर यह दिक्कत आती है कि ये या तो अतिनाटकीय हो जाती हैं या फिर उपदेश पिलाने लगती हैं। और कुछ नहीं तो हार्ड-हिटिंग बनाने के चक्कर में इनमें दिल दहलाने वाली घटनाएं डालना तो आम बात है। लेकिन इस फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है। सौ मिनट की होने के बावजूद यह मंथर गति से चलती है, मानो इसे अपनी बात कहने की कोई जल्दी नहीं है। इतने पर भी यह जो कहना और महसूस करवाना चाहती है, बहुत ही सहजता से करवा देती है। नितिन दीक्षित ने अगर अपनी लेखनी से फिल्म को खड़ा किया है तो आई एम कलामऔर जलपरीजैसी उम्दा फिल्में दे चुके नीला माधव पांडा अपने निर्देशकीय-कौशल का भरपूर प्रदर्शन करते हुए इसे ऊंचाई पर ले गए हैं। हालांकि मौसम की मार से ज्यादा यह कर्जे की मार तले दबे किसानों की कहानी लगती है और करजाया बंजरजैसे शीर्षक इस पर कहीं ज्यादा फिट होते। फिर भी जब यह फिल्म खत्म होती है तो आप चौंकते नहीं हैं बल्कि सन्न रह जाते हैं।

संजय मिश्रा ने अंधे-बूढ़े पिता के रोल में अब तक के अपने अभिनय-सफर के चरम को छुआ है। फिल्मी अंधों की तरह आंखें ऊपर चढ़ा कर और गर्दन उठा कर चलने की बजाय उन्होंने आंखें और गर्दन, दोनों को झुका कर बेहद प्रभावी काम किया है। एक अंधे व्यक्ति का इतना असरदार अभिनय या तो स्पर्शमें नसीरुद्दीन शाह ने किया था या अब संजय मिश्रा ने किया है। अपनी भैंस अन्नपूर्णा के साथ उनका बातें करना बताता है कि इंसान अब किस कदर अकेला पड़ चुका है। रणवीर शौरी ने ओडिशा से आए गुनु बाबू के किरदार में जरूरी कड़वाहट और झल्लाहट डाल कर इसे विश्वसनीय बनाए रखा है। तिलोतमा शोम, भूपेश सिंह, एकता सावंत और तमाम दूसरे कलाकारों ने भी भरपूर असरदार काम किया है। लोकेशन, पहनावा, बोली, रहन-सहन और स्थानीय भीड़, सब मिल कर फिल्म को गहराई देते हैं।

कैमरे और बैकग्राउंड म्यूजिक ने असर बढ़ाने का ही काम किया है। गीत मैं बंजर मैं बंजर...दिल में तीर की तरह घुसता-सा लगता है। अंत में गुलज़ार की आवाज़ में उन्हीं की नज़्म बंजारे लगते हैं मौसम, मौसम बेघर होने लगे हैं...फिल्म की रूह की मानिंद बन कर आती है।

इस फिल्म में मसाले नहीं हैं, मजा नहीं है, मनोरंजन भी नहीं है। इसमें कोई उपदेश भी नहीं है और ही यह कोई पाठ पढ़ाती है। लेकिन यह आज के दौर की एक ज़रूरी फिल्म है जो तनिक कड़वाहट के साथ अहसास कराती है कि अगर अब भी जागे तो हो सकता है, जागने लायक ही रहें।
अपनी रेटिंग-चार स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)