Monday 28 May 2018

सिक्ख सेंसर बोर्ड पर क्या कहा गिप्पी ग्रेवाल ने

-दीपक दुआ...
पंजाबी फिल्मों का बड़ा नाम हैं गिप्पी ग्रेवाल। लोग न सिर्फ उन्हें बतौर गायक प्यार करते हैं, उनकी आवाज़ पर थिरकते हैं बल्कि बतौर एक्टर भी उनकी दीवानगी कम नहीं है। उन्होंने एक पंजाबी फिल्म अरदासडायरेक्ट भी की थी लेकिन अभी भी वह खुद को एक गायक ही पहले मानते हैं। 1 जून को रिलीज़ हो रही उनकी फिल्म कैरी ऑन जट्टा 2के आने से पहले गिप्पी दिल्ली में थे जहां वह मीडिया से रूबरू हुए।

गिप्पी ने बताया कि 2012 में आई कैरी ऑन जट्टाकी तरह ही यह फिल्म भी एक एंटरटेंनिंग फैमिली कॉमेडी फिल्म होगी जिसमें उनके साथ सोनम बाजवा की जोड़ी है। छह साल का लंबा वक्त लगने के बारे में उन्होंने बताया कि पहले दो-तीन साल तक तो हम लोग कैरी ऑन जट्टाको ही एन्जॉय करते रहे क्योंकि वो फिल्म पुरानी ही नहीं हो रही थी। उसके बाद कहानी ढूंढी गई, प्लानिंग हुई और तब जाकर कैरी ऑन जट्टा 2की शुरूआत हो पाई।

इन्हीं तमाम सवालों के बीच मैंने फिल्म के निर्माता सनी और गिप्पी से पूछा कि यह बात सही है कि पंजाबी फिल्म इंडस्ट्री में बूम आया हुआ है। लेकिन मसाला फिल्में बन रही हैं, एंटरटेनमैंट बन रहा है। वो फिल्में जो पंजाबी विरासत की, सिक्खी की, धर्म की, गंभीर बातें करें, वे कम बन रही हैं और जो बन रही हैं, उन पर विवाद हो जाते हैं, जैसे नानक शाह फकीर। और दूसरी बात यह कि अभी हाल ही में कुछ सिक्ख नेताओं ने घोषणा की है कि वे लोग सिक्ख सेंसर बोर्डबनाएंगे जो उन फिल्मों को देखेगा जिनमें सिक्ख धर्म से जुड़ी बात होगी। क्या सरकारी सेंसर बोर्ड के ऊपर इस तरह का सेंसर बोर्ड होना चाहिए?

इस पर निर्माता सनी ने अपनी बात कही और उनके बाद गिप्पी ग्रेवाल ने बहुत ही सधे हुए शब्दों में और बहुत ही संतुलित तरीके से इन दोनों सवालों का जवाब दिया। वह जवाब क्या था, आप नीचे दिए गए लिंक में देख-सुन सकते हैं।

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Friday 25 May 2018

रिव्यू-सच के पोखरण में फिल्मी ‘परमाणु’


-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
1998 में पोखरण में हुए परमाणु परीक्षण कितने जरूरी थे? उनसे हमारे देश की सामरिक ताकत कितनी बढ़ी? और क्या उसी वजह से 1999 में हमें कारगिल झेलना पड़ा? इस किस्म के सवाल राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्रों में बहस का मुद्दा हो सकते हैं। लेकिन यह फिल्म ऐसी किसी बहस में पड़े बिना सीधे-सीधे यह दिखाती है सुबह के अखबार में जब आप ऐसी कोई खबर पढ़ते हैं कि भारत ने परमाणु परीक्षण कियातो इसके पीछे असल में कितने सारे लोगों की दिमागी और शारीरिक मेहनत लगी होती है। कितने सारे लोगों ने उसमें अपने और अपनों के सपनों की आहुति दी होती है। और बस, यहीं आकर यह एक ज़रूरी फिल्म हो जाती है।

Wednesday 23 May 2018

रिव्यू-अहसान उतारती है ‘बायोस्कोपवाला’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
टैगोर की अमर कहानी काबुलीवालाबताती है कि अफगानिस्तान से आया पठान (काबुलीवाला) कलकत्ते की गलियों में मेवे बेचता है, पैसे उधार देता है, छोटी-सी मिनी में अपनी बेटी की झलक देखता है, अपने मुल्क लौटना चाहता है, किसी को चाकू मार कर जेल चला जाता है, लौटता है तो पाता है कि मिनी की शादी हो रही है।

बायोस्कोपवालाउसी कहानी को नई नज़र से देखती है, नए सिरे से उठाती है और एक नया अंत दिखाती है। पठान को अफगानिस्तान से कोलकाता क्यों आना पड़ा? मिनी में उसे अपनी बेटी क्यों दिखाई देती है? अफगानिस्तान में वह क्या करता था? यहां वह मेवे बेचने की बजाय गलियों में घूम-घूम कर छोटे-से डिब्बे में बायोस्कोप क्यों दिखाता है। उसके जेल जाने के पीछे की सही वजह क्या थी? अब उसकी कैसी हालत है? इतने बरसों बाद मिनी उसे किस नज़र से देखती है? पहचानती भी है या नहीं? पहचान जाती है तो वह उसके लि क्या करती है? और मिनी जो करती है, वह सच जब सामने आता है तो यकीन मानिए आंखें नम हो उठती हैं।

Monday 21 May 2018

यादें-‘प्रहार’ का वो पहला अटैक

-दीपक दुआ...
1991 का बरस था। नवंबर का महीना। बी.कॉम का दूसरा साल। सिनेमा में अपनी दिलचस्पी जोर पकड़ चुकी थी। खासतौर से लीक से कुछ हट कर बनने वाली फिल्मों के प्रति अपना खासा लगाव था। 29 नवंबर को नाना पाटेकर के निर्देशन में प्रहाररिलीज हुई। जनसत्तामें श्रीश जी की लिखी समीक्षा पढ़ने के बाद दो-एक दोस्तों से यह फिल्म देखने के लिए पूछा। कोई राज़ी नहीं हुआ तो 5 दिसंबर, गुरुवार को अकेले ही जा पहुंचा। फिल्म देख कर निकला तो सिर भन्ना रहा था। सिनेमा के पर्दे पर अपने सभ्यसमाज की ऐसी स्याह तस्वीर ने मुझे अंदर तक हिला दिया। उस रात नींद नहीं आई। आई भी तो भीतर प्रहारचल रही थी।

इसके एक हफ्ते तक मैं कॉलेज नहीं गया। गया तो अर्थशास्त्र की क्लास में पंगा हो गया। मैडम ने अपने लेक्चर में पता नहीं किस संदर्भ में प्रहारके उस आखिरी सीन की आलोचना कर दी जिसमें बहुत सारे बच्चे नंगे बदन दिखाई देते हैं। अपने से रहा नहीं गया और उस सीन के पक्ष में पता नहीं क्या-क्या बोल गया। यह भी कि वे बच्चे नंगे नहीं बल्कि एक समान हैं, बराबरी पर खड़े हैं और एक स्वस्थ समाज का यही फर्ज़ है कि वह सबको बराबरी पर लाए और एक साथ आगे बढ़ने का मौका दे। बाकी बच्चों से पीछे रह गए दो बच्चों को रुक कर अपने साथ ले चलते हुए नाना पाटेकर फिल्म में यही तो कर रहे हैं। क्लास में सन्नाटा छा चुका था। मैडम मेरा मुंह तक रही थीं। फिर वह हैरान हो कर पूछ बैठीं-तुम सचमुच कॉमर्स के ही स्टूडेंट हो ...? ऊपर से तो मैंने जी हांही कहा, लेकिन अंदर ही अंदर मुझे भी लगने लगा था कि अब मेरी दिशा कुछ और है। सिनेमा मेरे जेहन पर वो प्रहार कर चुका था जिससे बचना अब मेरे लिए नामुमकिन था।

तब से अब तक सैंकड़ों फिल्में देखीं... शायद हज़ारों। मगर प्रहारआज भी मेरे जेहन से उतरती नहीं है। ऐसे ही किसी वक्त मन में यह भी आया था कि कभी अपने बच्चों को यह फिल्म दिखाऊंगा। अभी बेटे को यह फिल्म दिखाई। बीच में रोक-रोक कर संदर्भ भी समझाए। 14 साल की उम्र में वह इसे कितना समझ पाया होगा, कह नहीं सकता। बीज रोपना मेरा काम था, कर दिया। प्रहारके ही एक गीत के बोलों में कहूं तो जिन पर है चलना नई पीढ़ियों को, उन्हीं रास्तों को बनाना हमें है...!

(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)