Friday 23 February 2018

रिव्यू-‘चुटीले’ सोनू के ‘प्यारे’ टीटू की ‘करारी’ स्वीटी

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
बचपन के दो दोस्त सोनू और टीटू। पक्के याड़ी। टीटू रोए तो सोनू चुप कराए। टीटू को लड़की गलत मिली तो सोनू ने ब्रेकअप करवा दिया। जब टीटू की शादी स्वीटी से होने लगी तो सोनू को लगा कि यह लड़की उसके लिए ठीक नहीं है और वह जुट गया टीटू की जिंदगी में से स्वीटी को आउट करवाने में।

लव रंजन अपनी प्यार का पंचनामासीरिज की फिल्मों में लड़कियों को कसूरवार ठहराते रहे हैं और इस वजह से कुछ लोगों से खुद भी गालियां खाते रहे हैं। लेकिन अपनी इस फिल्म सोनू के टीटू की स्वीटीमें उन्होंने फिर से वही रंग दिखाए हैं कि रिश्तों में उलझनों की जिम्मेदार लड़कियां ही होती हैं। खैर, उनकी इस सोच से परे, बात इस पर होनी चाहिए कि पर्दे पर जो दिखा है, उसमें कितना दम और कितना मनोरंजन है।

हालांकि फिल्म यह स्थापित नहीं कर पाती कि स्वीटी में ऐसी कौन-सी बुराई है जो सोनू उसके खिलाफ है और स्वीटी भी क्यों खुद को चालूऔर विलेनकहती है। फिर भी, आप जो देखते हैं, उसे एन्जॉय करते हैं क्योंकि फिल्म की कसी हुई और तेज रफ्तार स्क्रिप्ट आपको ठहरने और सोचने का मौका नहीं देती। इस किस्म की फिल्म को किसी मैसेज या उपदेश की बजाय मसाला मनोरंजन के लिए देखा जाता है और वह इसमें भरपूर है। चुटीले संवाद हैं, जोरदार पंच हैं और बहुत सारे हैं। बल्कि इनकी गति इतनी ज्यादा है कि आप अभी एक का लुत्फ ले रहे होते हैं कि इतने में दूसरा जाता है। दिलचस्प किरदार हैं जो आपको लुभाते हैं। चिकने-खूबसूरत चेहरे हैं, रंग-बिरंगा शादी वाला माहौल है, थिरकाने वाले गाने हैं, आंखों को गर्माने वाली सुंदरियों का डांस है, ठहाके हैं। और भला क्या चाहिए एक मसाला फिल्म में?

कार्तिक आर्यन, सन्नी सिंह, नुसरत भरूचा की तिकड़ी जंचती हैं। बाकी सभी कलाकार भी अपने किरदारों में फिट दिखते हैं लेकिन टी.वी. के संस्कारीबाबूजी आलोक नाथ को एक बिल्कुल ही अलग अंदाज में देखना भाता है। वीरेंद्र सक्सेना के साथ उनकी जुगलबंदी काबिल--तारीफ है। ढेर सारे गीतकारों, संगीतकारों और गायकों की मेहनत से बने रीमिक्स अंदाज के पंजाबी गाने करारा तड़का लगाते हैं।

अगर प्यार का पंचनामावाली फिल्में आपको पसंद आती रही हैं तो यह फिल्म आपको लोटपोट कर देगी। पर अगर आप ऐसी चुटीली, प्यारी और करारी फिल्म में भी गंभीरता का लबादा ओढ़ कर नैतिकता का पाठ पढ़ने जाना चाहते हैं तो छोड़िए इस फिल्म को। आज शाम कोई ए.जी.. ज्वाइन कर लीजिएगा।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

Sunday 18 February 2018

रिव्यू-मन को नम करते ‘कुछ भीगे अल्फाज़’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
कभी ऐसा भी होता है कि रेडियो सुनते-सुनते किसी आर.जे. के साथ इश्क हो जाए? इश्क सही, उस आर.जे. के साथ, उसके अल्फाज़ों के साथ, एक राब्ता-सा तो जुड़ने ही लगता है। निर्देशक ओनिर की यह फिल्म एक ऐसे ही आर.जे. और गलती से उसे फोन कर बैठी एक लड़की की भीगी-भीगी कहानी दिखाती है।

आर.जे. अल्फाज़ कोलकाता में देर रात रेडियो पर लोगों को वे कहानियां सुनाता है जो वह लोगों से मिल कर इक्ट्ठा करता है। लेकिन खुद उसकी क्या कहानी है, उसका क्या स्याह अतीत है, कोई नहीं जानता। या जानना नहीं चाहता। मुमकिन है वह खुद ही किसी को बताना नहीं चाहता। उधर खुशमिज़ाज अर्चना है जिसके चेहरे और बदन पर सफेद दाग हैं। सोशल मीडिया के जरिए वह लड़कों से ब्लाइंड-डेट पर मिलती है और उनके चेहरे के बदलते रंग देख कर मजे लेती है। एक दिन ये दोनों गलती से आपस में जुड़ जाते हैं और फिर... जुड़ते चले जाते हैं।

ओनिर अलग किस्म के फिल्मकार हैं। अपनी फिल्मों में वह बॉक्स-ऑफिस को लुभाने के तो छोड़िए, दर्शकों तक को रिझाने के फॉर्मूलों का इस्तेमाल करने तक से परहेज करते आए हैं। कहानी कहते समय लीक से हट कर वह अपने रास्ते खुद बनाते हैं, अपना एक अलग संसार रचते हैं। यही वजह है कि उनकी फिल्मों को पर्दे पर पारंपरिक तरीके से कहानी देखने के शौकीनों का साथ नसीब नहीं हो पाता। हालांकि अपनी पिछली फिल्म शबमें ओनिर ने मुझे भी काफी निराश किया था। लेकिन इस बार वह एक सौंधी खुशबू के साथ आए हैं। बिना कोई लंबी-चौड़ी फिलॉसफी बघारे वह अपने भीतर झांकने, अपने मन में पडी गाठों को खोलने और हर पल को खुल कर जीने की बात करते हैं।

यह फिल्म सिर्फ अलग तरह से कहानी कहती है बल्कि यह आज के उस समाज को दिखाती है जहां सोशल मीडिया इतना ज्यादा हावी हो चुका है कि इंसान के पास अपने लिए वक्त ही नहीं है।

ज़ेन खान दुर्रानी की यह पहली फिल्म है लेकिन अल्फाज़ के किरदार को उन्होंने शिद्दत से निभाया है। गीतांजलि थापा तो खैर उम्दा कलाकार हैं ही। मोना अंबेगांवकर अपनी मौजूदगी का अहसास कराती हैं। श्रेय राय तिवारी भी जम कर सपोर्ट करते हैं। अल्फाज़ों के जरिए मन को भिगोने में कामयाब रही है यह फिल्म।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)