Saturday 31 August 2019

रिव्यू-आप ही के कर्मों का फल है ‘साहो'

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
इसी दुनिया के किसी शहर में अंडरवर्ल्ड का बादशाह रॉय रहता है। एक डील के लिए वह मुंबई आता है और मारा जाता है। उसके बेटे को उसके कातिलों की तलाश है। वहीं कुछ लोग उसके बेटे को हटा कर उसकी कुर्सी पर बैठना चाहते हैं। इन सबको तलाश है एक ब्लैक-बॉक्स की जो मुंबई में कहीं है, ताकि उससे एक तिजोरी खोली जा सके। उधर मुंबई में एक चोर ने सबकी नाक में दम कर रखा है जिसे पकड़ने के लिए एक अंडरकवर अफसर को लाया जाता है। लेकिन ऐसी फिल्मों में जो दिखता है, वही सच नहीं होता। और ऐसी फिल्मों में लोग जैसे दिखते हैं, अक्सर वे उसके उलट होते हैं। तो बस, यहां भी एक-एक कर परतें खुलती हैं-कहानी की और लोगों की भी।

Friday 30 August 2019

पुस्तक समीक्षा-दिल से निकले घुमक्कड़ी के किस्से

-दीपक दुआ...
घूमना भला किसे अच्छा नहीं लगता। शायद ही कोई ऐसा इंसान हो जिसे नई-नई जगहों पर जाना और वहां की यादों को सीने में, आंखों में और कैमरों में संजो कर लाना भाता हो। किसी जगह से लौट कर दूसरों को उसके बारे में बताने का आनंद भी कम नहीं होता। अपनी इस किताब घुमक्कड़ी दिल सेमें अलका कौशिक इस आनंद को जी भर कर लूटती हैं।

अलका कौशिक-देश की ख्यात घुमक्कड़ और ट्रैवल-लेखिका, जिन्होंने घूमने और लिखने के अपने शौक पूरे करने के लिए अच्छी-खासी सरकारी नौकरी छोड़ दी ताकि उन कामों को कर सकें जो उनके दिल के करीब हैं। अलका की इस किताब की गलियों से होकर गुज़रें तो लगता है कि इतनी सारी और इस किस्म की घुमक्कड़ी सचमुच दिल से ही की जा सकती है, दिमाग से नहीं। दिमाग तो किंतु-परंतु में उलझाए रखने वाली मशीन है, यह तो दिल ही है जो इंसान को सारे बंधनों से परे आड़ी-टेढ़ी राहों पर ले जाने का साहस कर लेता है। और वहां से लौटने के बाद फिर ऐसी ही कहानियां सामने आती हैं जो अलका हमें इस किताब में सुनाती हैं।

Sunday 18 August 2019

रिव्यू-शाबाशियों की हकदार ‘मिशन मंगल’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
भारत ने तय किया कि वह मंगल ग्रह पर अपना यान भेजेगा। अमेरिका, रूस जैसे देश तक पहली कोशिश में  नाकाम हो चुके थे। लेकिन भारतीय वैज्ञानिक जुट गए। दिन-रात एक कर दिया और एक दिन उन्होंने पहली ही कोशिश में मंगल पर अपना यान भेज भी दिया-दूसरे देशों के मुकाबले कहीं कम लागत में, कहीं कम समय में, कहीं ज़्यादा परफैक्शन के साथ।

यह कहानी नहीं, हकीकत है। और अगर इस हकीकत को पूरे हकीकती अंदाज़में दिखाया जाए तो सबसे पहले तमाम दर्शकों को एयरोस्पेस इंजीनियरिंग करवानी पड़ेगी और उसके बाद भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) में ले जाकर कम--कम साल भर की इंटर्नशिप। उसके बाद बड़े भारी-भरकम रिसर्च और तगड़ी वैज्ञानिक शब्दावली वाली फिल्म बन कर आएगी जिसे देख कर ये पढ़े-लिखेदर्शक कोई मीनमेख नहीं निकालेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। दूसरा तरीका यह है कि इस फिल्म की तमाम बातों को बड़े ही सहज, सरल शब्दों में, हिन्दी सिनेमा की तमाम खूबियों (इन्हें आप मसालाभी कह सकते हैं) के साथ इस तरह से दिखाया जाए कि इसे बच्चे भी आसानी से समझ सकें। इस फिल्म को बनाने वालों ने यही दूसरे वाला तरीका चुना है।