Friday 25 December 2020

रिव्यू-एंटरटेमैंट का बोझ नहीं उठा पाई ‘कुली नं. 1’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
पहला सीन-गोआ के एक रईस ईसाई बिज़नेसमैन जैफ्री रोज़ारियो की बेटी के लिए एक हिन्दू पंडित
रिश्ता लेकर आया हुआ है। (आप चाहें तो सिर्फ इस बेतुके सीन को देखने के बाद ही इस फिल्म को बंद करके किचन में पत्नी की या होमवर्क में बच्चों की मदद करने जैसा कोई सार्थक काम कर सकते हैं। इस रिव्यू को भी आगे न पढ़ने का फैसला आप यहीं
, इसी वक्त ले सकते हैं। नहीं...? चलिए, आपकी मर्ज़ी, हमें क्या, पढ़िए...) हां, तो जैफ्री उस पंडित की बेइज़्ज़ती करता है और पंडित मुंबई सैंट्रल रेलवे स्टेशन पर कुली का काम करने वाले राजू को महा-रईस बता कर उसका रिश्ता जैफ्री की बेटी से करवा देता है। ज़ाहिर है इस कहानी में कई उलझने होंगी जो अंत तक सुलझ ही जाएंगी।

Monday 14 December 2020

बुक रिव्यू-चुटीलेपन संग हॉरर का मज़ा ‘उफ़्फ़ कोलकाता’ में

 -दीपक दुआ...
नई वाली हिन्दी के इन दिनों रहे उपन्यासों में झांकें तो सत्य व्यास सरीखी कलम दूसरी नहीं मिलती। अपनी कहानियों को रोचकता से कहने और उस रोचकता को शुरू से अंत तक लगातार बनाए रखने में सत्य-या कोई दूसरा नहीं दिखता। उनके पहले उपन्यासबनारस टॉकीज़और दूसरेदिल्ली दरबारमें चुटीलापन और रोचकता भरपूर थी। उनका यह पांचवा उपन्यासउफ़्फ़ कोलकाताइन दोनों उपन्यासों सरीखा ही है।
 
लेकिन इस बार सत्य ने कहानी में चुटीलेपन और रोचकता के साथ-साथ हॉरर का मसाला भी डाला है जिसके चलते यह कुछ अलग ही मज़ा देता है। अपने पहले दो उपन्यासों की तरह ही इस बार भी उन्होंने इसे किसी फिल्म की स्क्रिप्ट सरीखे ढंग से लिखा है जिसे पढ़ते हुए आंखों के सामने दृश्य तैरने लगते हैं। यही कारण है कि जब उपन्यास में हॉरर का ज़िक्र होता है तो पढ़ने वाले को भी डर लगता है। यह डर ही इस उपन्यास को सफल बनाता है।

Saturday 5 December 2020

रिव्यू-टैगोर की दमदार कहानी पर हल्की ‘दरबान’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
टैगोर की कहानियों पर अपने यहां अलग-अलग भाषाओं में कई फिल्में बन चुकी हैं। ज़ी-
5 पर आई यह फिल्म टैगोर की 1918 में लिखी एक शॉर्ट-स्टोरी ‘खोकाबाबूर प्रत्याबर्तन’ पर आधारित है जिस पर बांग्ला में 1960 में इसी नाम से उत्तम कुमार और सुमिता सान्याल को लेकर एक फिल्म बन चुकी है। यह कहानी है एक अमीर आदमी के घर में नौकर का काम करने वाले रायचंद यानी रायचू की। उसका काम है उस आदमी के छोटे-से बच्चे की देखभाल करना। एक दिन रायचू उस बच्चे को घुमाने ले जाता है और बच्चा कहीं गायब हो जाता है। नदी में उसके जूते मिलते हैं लेकिन लाश नहीं। कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि बेऔलाद रायचू उसे चुरा कर अपने घर ले गया। उधर रायचू लगातार पश्चाताप की आग में जल रहा है। अंत में वह इस से उबरने के लिए कुछ अनोखा ही कर बैठता है।