-दीपक दुआ... (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
हिन्दी फिल्मों का सबसे ज़्यादा विवादों में घिरा वह सितारा जिसकी ज़िंदगी की पूरी कहानी ही फिल्मी है। जिसमें इतने सारे उतार-चढ़ाव हैं कि बताने वाला थक जाए और सुनने वाला पक जाए। उस की बायोपिक का दावा करती एक फिल्म आए और उसमें सिर्फ दो चैप्टर हों-पहला यह कि उसने नशे की लत पर कैसे फतह हासिल की और दूसरा यह कि उसने खुद पर लगे ‘आतंकवादी’
के दाग को कैसे दूर किया, तो
समझिए कि दिखाने वाला आपको भले ही सच दिखा रहा हो लेकिन वह अधूरा सच है। अपने यहां बायोपिक आमतौर पर ‘आधी
हकीकत आधा फसाना’ की
तर्ज़ पर बनाई जाती हैं। ‘संजू’
के मामले में यह ‘अधूरी
हकीकत बाकी फसाना’ हो
गई है। कारण साफ है-संजय दत्त के बारे में भला ऐसी कौन-सी बात है जो लोग नहीं जानते? उन
ढेर सारी बातों में से अगर ज़्यादातर का ज़िक्र तक न हो, संजू
की ज़िंदगी में अहम रोल अदा करने वाले ढेरों किरदारों की झलक तक न हो, उसके
कैरियर के महत्वपूर्ण मोड़ों में से कई सारे सिरे से गायब हों, तो
समझिए कि आप वो नहीं देख रहे जो आप देखना चाहते हैं बल्कि आप वो देख रहे हैं जो आपको जबरन दिखाया जा रहा है।
फिल्म के अंदर का संजय दत्त बड़े ज़ोर से यह चाहता है कि उसकी बायोग्राफी यानी आत्मकथा एक नामी राइटर लिखे ताकि उसमें कुछ सलीका हो और लोग उस पर ज़्यादा यकीन करें। थोड़ी ना-नुकर के बाद वह राइटर राज़ी होती है तो संजू उसे अपनी ज़िंदगी के ‘कुछ’
चैप्टर सुनाता है। जी हां, ‘कुछ’
चैप्टर। सारे नहीं। बाकी के वह सुनाता नहीं और न ही वह राइटर उनके बारे में पूछती है। ज़ाहिर है ऐसे में जो किताब बन कर सामने आएगी, वह
सच्ची तो हो सकती है, संपूर्ण
नहीं।
इस फिल्म के साथ भी यही हुआ है। यह तय है कि निर्देशक राजकुमार हिरानी संजू के पास यह ऑफर लेकर तो नहीं गए होंगे कि बाबा, चलो
तुम्हारी जिंदगी पर एक फिल्म बनाते हैं। ऑफर संजू (और उनकी इमेज को लेकर उनसे भी ज़्यादा सतर्क रहने वाली उनकी पत्नी मान्यता) की तरफ से आया होगा कि राजू भाई, कुछ
कीजिए न। पेशी, पनिशमेंट,
पेरोल, प्रायश्चित, पश्चाताप, सब हो गया। बस, एक
बायोपिक बन जाए जो लोगों के ज़ेहन में दस्तावेज की तरह दर्ज़ हो जाए तो मज़ा आ जाए।
हालांकि यह भी सच है कि फिल्म ज़्यादातर समय आपको बांधे रखती है। अब तक की अपनी चारों फिल्मों (मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस., लगे
रहो मुन्नाभाई, 3 ईडियट्स और पीके) से निर्देशक राजकुमार हिरानी ने जो कद हासिल किया है, उसके
बरअक्स तो यह फिल्म नहीं ठहर पाती लेकिन एक स्टोरीटेलर के तौर पर राजू आपको निराश नहीं करते। संजू के डर, उसकी
मस्तियां, उद्दंडताएं, कमज़ोरियां, ताकत, खूबियां,
खामियां, तमाम चीज़ों को वह सलीके से दिखाते और बताते हैं। फिल्म साफतौर पर यह संदेश भी देती है कि मुश्किल वक्त में अगर अपने लोग दृढ़ता से साथ खड़े हों तो इंसान हर मुश्किल पार कर लेता है। फिल्मी गानों से ज़िंदगी की ज़रूरी सीखें लेने की बात भी यह सिखा जाती है।
इस फिल्म को इसके लेखन और निर्देशन पक्ष से ज़्यादा इसके अभिनय पक्ष के लिए देखा जाना चाहिए। रणबीर कपूर ने जिस तरह से संजू को आत्मसात किया, उस
कमाल के लिए इसे देखा जाना चाहिए। परेश रावल ने भी दत्त साहब को कायदे से जिया। दीया मिर्ज़ा, मनीषा
कोईराला, सोनम कपूर, बोमन
ईरानी, जिम सरभ जैसे बाकी कलाकारों का भी भरपूर सहयोग रहा। अनुष्का शर्मा साधारण लगीं। लेकिन सब पर भारी पड़े विकी कौशल। दत्त परिवार के गुजराती दोस्त के किरदार में विकी कई जगह सीन चुरा कर ले गए। उन्हें बैस्ट सपोर्टिंग एक्टर के अवार्ड बटोरने के लिए तैयार रहना चाहिए। गाने बेहद साधारण हैं और फिल्म का यह पक्ष निराश करता है।
संजय दत्त को लोगबाग ‘संजू बाबा’ के
नाम से पुकारते आए हैं। उन पर बायोपिक शुरू करने से पहले राजू हिरानी ने लोगों से इस फिल्म के टाइटल को लेकर सुझाव मांगे थे। मैंने राजू को ‘बाबा’
नाम सुझाया था। अगर यह एक ईमानदार और संतुलित बायोपिक होती तो यही नाम उस पर फिट बैठता। लेकिन अब इस फिल्म को देख कर लगता है कि हिरानी और खुद संजय को भी ‘बाबा’
वाली धमक नहीं बल्कि ‘संजू’ वाली
सॉफ्टनेस चाहिए थी। छवि चमकाने के अभियान पर निकले लोगों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक
व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार
पत्रों,
पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए
हैं।)
बढ़िया। बधाई। फिल्म का नाम "संजू बाबा" भी रखा जा सकता था।
ReplyDeleteसंजय की शख्शियत को 'बाबा' ज्यादा जँचता है। उसमें वजन है धमक है।
ReplyDeleteएक निष्पक्ष और ईमानदार फिल्म रिव्यु के लिए दीपक जी बधाई.
ReplyDeleteEk sabak hairaani ke lie...Ki khilwad na karo bandhu
ReplyDeleteEk sabak biopic kehke movie banane walon ke lie ki beta public se na sahi khud se to imaandari rakho...
Baba or hairaani ke sanju ji aaj kal ki media apki soch se zyada fast hai...To jo apka past hai...Humko pata hai...Sach dikhte to shayad zehan se dil me utar jate...
Chubh gye aap zehan me afsos..
Deepak dua sir kamal kar ditta apne ye review likh ke...
Kasam se ...Thank u so much
वाह. असल तस्वीर तो यही है कि इमेज सुधारने के लिए ये फ़िल्म बनाई गई है. बाकी सब तो फसाना ही है. एक दो रोज़ में फ़िल्म देख पाऊंगा... बाकी राय तभी बन सकेगी.
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ReplyDeleteमुझे फिल्म पसंद आई और आपका रिव्यू भी...जिसे मैं हमेशा पढ़ता हूँ..
ReplyDeleteदीपक जी एक फ़िल्म में आप किसी सरल-सहज इंसान तक कि ज़िन्दगी के हर पहलू को नही छू सकते है उसकी पूरी हक़ीक़त बया नही कर सकते ,फिर तो ये संजय दत्त की थी । बॉयोपिक आने से पहले भी लोगो को संजू के बारे में बहुत पता था ,फिर भी राजू हिरानी सर ने कुछ घटनाओं को लेकर ऐसा ताना बाना बना की जनता का ध्यान आखिर तक केन्द्रित रहा । तो मेरे हिसाब से निर्देशन और लेखन इस फ़िल्म का अव्वल दर्जे का है ।
ReplyDeleteबाकी आपका रिव्यु भी अच्छा है ।