Friday, 9 February 2018

रिव्यू-खुले दिल से स्वीकारिए ‘पैडमैन’ को

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
अपनी बीवी के उन दिनोंके लिए गंदे कपड़े की बजाय सैनेटरी नैपकिन बनाने में जुटे शख्स को वही बीवी कहे कि आपको हो क्या गया है जो आप सारे काम छोड़ कर औरत के पैरों के बीच में दखल दे रहे हैं? जिसकी बीवी-बहनें उसे छोड़ कर चली जाएं और मां उससे नाता तोड़ ले क्योंकि उस पर उनके लिए सैनेटरी पैड बनाने का भूत सवार है, तो सोचिए उस शख्स पर क्या बीतेगी जो दरअसल अपने परिवार की औरतों के स्वास्थ्य की चिंता में घुला जा रहा है।

गांव-देहात की औरतों को सस्ते सैनेटरी पैड उपलब्ध कराने के लिए सैनेटरी पैड बनाने की सस्ती मशीन बनाने वाले तमिलनाडु के अरुणाचलम मुरुगानंथम के जीवन पर आधारित यह फिल्म काफी जगह सिनेमाई छूटें भी लेती है। यह जरूरी भी था नहीं तो यह एक सूखी डॉक्यूमेंट्री बन कर रह जाती। जब आप सिनेमा बनाते हैं तो यह जरूरी हो जाता है कि आप सिनेमा की भाषा और सिनेमा के ही शिल्प का इस्तेमाल करें। निर्देशक आर. बाल्की यह काम बखूबी जानते हैं और इस फिल्म में भी उन्होंने अपने पर्सनल टच के साथ इसे अंजाम दिया है। हालांकि अभी भी कई जगह यह फिल्म कुछ ज्यादा ही उपदेशात्मक हो जाती है तो कभी अचानक से फिल्मीभी। लेकिन इसे बनाने वालों की नेकनीयती और विषय के प्रति उनकी ईमानदारी को देखते हुए इन चूकों को नजरअंदाज करना ही सही है। बड़ी बात यह है कि एक निहायत ही वर्जित समझे जाने वाले विषय पर बनी होने के बावजूद यह कहीं भी शालीनता की हद पार नहीं करती। कहीं भी इसमें फिल्मी मसाले ठुंसे हुए नहीं दिखते। कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि यह बोर कर रही है या किसी मुहिम के अति-प्रचार में जुटी हुई है। फिल्म सीधे तौर पर औरतों के उन मुश्किल दिनों में उनका साथ देने, उन्हें लेकर फैले फालतू के भ्रमों से दूर हटने, उन्हें बीमारी से बचाने और इसके लिए उन्हें सस्ते सैनेटरी पैड मुहैया कराने की सटीक बात करती है और इसकी यही सहजता सरलता ही इसकी सबसे बड़ी खासियत है।

फिल्म हमें एक साथ दो संसार दिखाती है। नायक लक्ष्मी का संसार जिसमें वर्जित विषयों पर बात तक कहने-सुनने की मनाही है। और दूसरी तरफ दिल्ली की आधुनिक लड़की परी और उसके पिता की दुनिया जिसमें हर किस्म का खुलापन है। और ये दोनों ही संसार एक-दूसरे से बहुत दूर होने के बावजूद हमें अजीब नहीं लगते। ऐसी ही फिल्में होती हैं जो इन दोनों किस्म की दुनियाओं के बीच का फासला कम करती हैं। अक्षय और सोनम के किरदार के बीच नजदीकियां लाने और सही समय पर उन्हें दूर करने की स्मार्टनैस फिल्म की गरिमा को बढ़ाने का ही काम करती है।

फिल्म उस संघर्ष को करीब से महसूस कराती है जिससे होकर कभी अरुणाचलम गुजरे होंगे। फिल्म के कई सीन, कई संवाद सीधे दिल पर असर करते हैं। लक्ष्मी के संघर्ष और उसके रास्ते में आने वाली मुश्किलों के बाद उसे कामयाबी और शोहरत मिलती देख कर दिल भावुक होता है और आंखें नम। साथ ही यह महिलाओं को स्वरोजगार के जरिए सशक्त बनने की भी सीख देती है। इसकी यही खूबी इसे एक संुदर फिल्म में तब्दील करती है जिसे देखते हुए पर्दे से आंखें हटाने का मन नहीं होता।

अक्षय अपनी पर्दे की उम्र से बड़े दिखने के बावजूद जंचते हैं। राधिका आप्टे तो ऐसे रोल निभाने की अब आदी हो चुकी हैं। शहरी बाला के किरदार के लिए सोनम कपूर सही च्वाइस रहीं। छोटे-छोटे किरदारों में आए तमाम कलाकार एकदम विश्वसनीय लगते हैं। फिर चाहे वह अक्षय की मां के रोल में आईं ज्योति सुभाष रही हों, सोनम के पिता के रोल में आए सुनील सिन्हा या फिर अक्षय जिस प्रोफेसर के घर में रह कर मुफ्त का ज्ञान पाते हैं वह राकेश चतुर्वेदी, हर किसी का काम जानदार रहा है।
मध्यप्रदेश की अछूती लोकेशंस को कैमरे ने अपने भीतर बखूबी समेटा है। कौसर मुनीर के गीतों को अमित त्रिवेदी ने उम्दा संगीत दिया है। खासतौर से अरिजित सिंह के गाए आज से तेरी सारी गलियां मेरी हो गईं...में तो दिल जीतने के तमाम तत्व मौजूद हैं। इस गाने में ढोलकी की थाप दिल धड़काती है।

जिस देश में औरतों की माहवारी को एक कुदरती प्रक्रिया से ज्यादा एक बीमारीमाना जाता हो। और वह भी ऐसी बीमारी कि पांच दिन के लिए औरत को अछूत करार दे दिया जाए। जिस देश के आधुनिक और पढ़े-लिखे परिवारों में भी इस बारे में बात तक करना निषेध हो, वहां अगर मुख्यधारा के सिनेमा से इस विषय पर कोई फिल्म बन कर आए तो उसका स्वागत होना चाहिए, खुले दिलों के साथ... क्योंकि रास्ते बंद दिलों से होकर नहीं गुजरा करते।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

6 comments:

  1. Wah.. apka review movie me aise kam karta hai jaise lajawab sabzi me dhaniya ka patta ..Maza jaata hai.. dekhne me or khane me bhi...Thank u sir...

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  2. superb film Jai Tari Film Director

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  3. आज हमने शादी की सालगिरह पैड मैन देखकर मनाई, आप साधुवाद के पात्र हैं इस तरह की फ़िल्म बनाने हेतु, सलाम आपको

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