Thursday, 21 September 2017

रिव्यू-न्यूटन-‘न्यू’ है और ‘टनाटन’ भी...

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
मां-बाप ने नाम रखा था नूतन कुमार। लोग सुन कर हंसते थे तो उसने दसवीं के फॉर्म में नूका न्यूकर दिया और तनका टन अब न्यूटन कुमार (राजकुमार राव) सरकारी नौकर हैं और नियम-कायदे के पक्के। लोकसभा चुनाव में बंदे की ड्यूटी लगती है छत्तीसगढ़ के नक्सली इलाके के एक छोटे-से गांव में जहां सिर्फ 76 वोटर हैं। वहां मौजूद सुरक्षा बल की टुकड़ी का मुखिया आत्मा सिंह (पंकज त्रिपाठी) चाहता है कि बस, किसी तरह से वोट डल जाएं और आज का यह दिन बीते। लेकिन न्यूटन बाबू हर काम पूरे नियम और कायदे से करेंगे, चाहे खुद की जान पर ही क्यों बन आए।

दुनिया का सबसे लोकतंत्र भारत और उस लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव आम चुनाव। गौर करें तो इन चुनावों के मायने नेताओं के लिए, चुनाव करवाने वाले कर्मचारियों के लिए, सुरक्षा बलों के लिए और जनता के लिए अलग-अलग होते हैं। 76 वोटर वाले इस गांव की किसी नेता को फिक्र नहीं है। लेकिन न्यूटन ट्रेनिंग में मिली सीख-स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करवाने पर तुला है। न्यूटन की यह जिद उसकी टीम के लोकनाथ बाबू (रघुवीर यादव) की सोच और आत्मा सिंह के रवैये पर भारी पड़ती है। बूथ लेवल अधिकारी के तौर पर इस टीम से जुड़ी स्थानीय टीचर मलको नेताम (अंजलि पाटिल) की टिप्पणियां चुभते हुए अलग ही सवाल पूछती हैं। असल में वह मलको ही है जो इन शहरी बाबुओं को बताती है कि यहां के आदिवासियों के लिए चुनाव कितने गैरजरूरी हैं। 'वोट दें तो नक्सली मारेंगे और दें तो पुलिस।' 'हमें क्या चाहिए, यह कोई नहीं पूछता' जैसे छोटे मगर चुभते संवाद फिल्म को गहराई देते हैं तो न्यूटन, लोकनाथ आत्मा के बीच के संवाद लगातार एक चुटीलापन बनाए रखते हैं। चाहें तो इस फिल्म को कुछ हद तक एक ब्लैक कॉमेडी के तौर भी देख सकते हैं। कुछ एक सिनेमाई छूटों और चूकों को नज़रअंदाज़ करते हुए देखें तो यह फिल्म लीक से हट कर बनने वाले सिनेमा की एक उम्दा मिसाल है।

निर्देशक अमित वी. मसुरकर के अंदर ज़रूर कोई सुलेमानी कीड़ा है जो उन्हें बार-बार लीक से हट कर फिल्में बनाने को प्रेरित करता है। अपनी पिछली फिल्म सुलेमानी कीड़ाके बाद वह एक बार फिर अपनी प्रतिभा का बेहतरीन प्रदर्शन करते हैं। एक्टिंग सभी की कमाल की है। राजकुमार, रघुवीर यादव, पंकज, संजय मिश्रा, सभी की। अंजलि तो आदिवासी ही लगने लगी हैं अब। उन मुकेश प्रजापति का काम भी बढ़िया है जो चुनावी टीम का हिस्सा हैं लेकिन उन्हें संवाद बमुश्किल ही मिले। 

यह फिल्म आपको मसाला सिनेमा की रंगीन दुनिया से परे असलियत के करीब ले जाती है। आपको सोचने पर विवश करती है लेकिन लगातार आपके होठों पर मुस्कुराहट रखते हुए। फिल्म का अचानक से खत्म हो जाना अखर सकता है। दरअसल इस किस्म की फिल्में आपको पकी-पकाई खीर की तरह नहीं मिलती हैं। अपने भीतर पहुंचाने के बाद इन्हें जज़्ब करने के लिए आपको भी कुछ मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन यह मेहनत आपको एक न्यू (नए) किस्म का सिनेमा जरूर देती है जो टनाटन (बढ़िया) भी है।
अपनी रेटिंग-चार स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज से घुमक्कड़। अपनी वेबसाइट सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

2 comments:

  1. Is type ki bhi movie ban rae hai...Padh kar achha laga...Thank u...Sir...New....Ton..Nam se bane is new invention ko dekhna to banta hai

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  2. बहुत ही सार्थक समीक्षा।

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