झांसी के पास जमुनिया नाम के एक गांव का 11 बरस का लड़का गुड्डू। उसे हर चीज़ में संगीत सुनाई देता है। मां नहीं है और बाप शराबी। झांसी में एक चाय की दुकान पर काम करते-करते वह तानसेन संगीत महाविद्यालय में शिक्षा पाने का सपना देखता है। लेकिन उसकी प्रतिभा देख कर तानसेन वाले ही इसकी शरण में चले आते हैं। अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर वह एक कंपीटिशन में तानसेन वालों को जितवा देता है।
Friday, 16 October 2020
Sunday, 4 October 2020
रिव्यू-डॉली किट्टी के खोखले सितारे
दिल्ली से सटा नोएडा और उससे सटा ग्रेटर नोएडा। अपने परिवार संग रहती डॉली। बिहार से उसकी कज़िन किट्टी भी आ बसी उसके यहां। दोनों उड़ना चाहती हैं। अपनी अधूरी तमन्नाएं, दमित इच्छाएं पूरी करना चाहती हैं। करती भी हैं और नारी ‘मुक्त’ हो जाती है।
राईटर-डायरेक्टर अलंकृता श्रीवास्तव अपनी फिल्मों के ज़रिए ‘नारी मुक्ति’ का झंडा उठाए रहती हैं। अपनी पिछली फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ में भी वह यही कर रही थीं। चार औरतों की कहानी के बरअक्स उन्होंने उस फिल्म में भी नारी की अधूरी, दबी हुई इच्छाओं को दिखाने का प्रयास किया था। लेकिन तब भी और अब तो और ज़्यादा, वह अपने इस प्रयास में विफल रही हैं। और इसका कारण यह है कि अलंकृता अपने मन में यह छवि बिठा चुकी हैं कि नारी तभी ‘मुक्त’ हो सकती है जब वह पुरुष की सब बुराइयां, सारी कमियां अपना ले। उस फिल्म के रिव्यू में मैंने यही लिखा था (यहां क्लिक करें) कि ‘‘ क्या फ्री-सैक्स, शराब-सिगरेट, फटी जींस और अंग्रेजी म्यूजिक अपनाने भर से औरतें आजाद हो जाएंगी? आजादी के ये प्रतीक क्या इसलिए, कि यही सब पुरुष करता है?
अगर ऐसा है तो फिर औरत यहां भी तो मर्द की पिछलग्गू ही हुईं? फिल्मकारों को नारीमुक्ति की इस उथली और खोखली बहस से उठने की जरूरत है।’’
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