-दीपक दुआ... (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
दिल्ली की सड़कों पर एक बेटी के साथ गैंग-रेप हुआ और उसकी मां ने उन जालिमों को चुन-चुन कर मारा। अरे, इसी कहानी पर तो अभी कुछ हफ्ते पहले रवीना टंडन वाली फिल्म ‘मातृ’ आई थी। तो उसमें और इसमें क्या फर्क है? फर्क यह है कि उसके मुकाबले इसकी कहानी में थ्रिलर वाला टच ज्यादा है, इसमें कुछ और बड़े कलाकार भी हैं, इसमें ज्यादा पैसा लगा हुआ पर्दे पर दिखता है। तो क्या इससे यह फिल्म उससे बड़ी और बेहतर हो जाती है? जवाब है-बड़ी तो जरूर हुई है, बेहतर बस हल्की-सी ही हो पाई है।
एक बलात्कार पीड़िता की पीड़ा को मेकअप, अभिनय, भंगिमाओं और निर्देशन की कल्पनाशीलता का सहारा मिलने के बाद वे दृश्य कैसे प्रभावी हो उठते हैं, इसके लिए इस फिल्म को देखा जा सकता है। एक आरोपी के मरने की खबर सुनने के बाद उसका अपने कमरे के पर्दे को हल्का-सा खिसका कर बाहर की रोशनी को अंदर आने देना प्रतीक के तौर पर असर छोड़ता है। लेकिन एक बलात्कार पीड़िता का बाथरूम में शाॅवर के नीचे बैठे रहने का सीन हम भला और कितने दशकों तक देखेंगे?
इमोशनल मोर्चे पर तो फिल्म ठीक है लेकिन एक थ्रिलर के रूप में यह निराश करती है। कारण वही पुराना कि जब आप थ्रिलर बनाते हैं तो तर्कों के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते और आपकी स्क्रिप्ट उन सारे सवालों के जवाब देती हो जो दर्शक के मन में उठ रहे हैं। लेकिन यहां ऐसा नहीं हो पाता। एक साधारण स्कूल टीचर, जिसे ऊंची आवाज में डांटना तक नहीं आता, कत्ल कर रही है और वह भी ऐसे सधे हुए अंदाज में कि जेम्स बाॅण्ड भी मात खा जाए। नहीं हुजूर, हजम नहीं हुआ, चूरण चटाइए हमें।
इसे श्रीदेवी की कमबैक फिल्म (आखिर कितनी बार वापस आएंगी वह?) कहा जा रहा है। इसके निर्माता उनके पति बोनी कपूर हैं तो जाहिर है कि इसमें उनका रोल सबसे लंबा और (गहरा भी) होना ही था। इसी लंबाई और गहराई को उन्होंने ‘बाहुबली’ में महसूसा होता तो आज उन्हें राजमाता शिवगामी देवी के तौर पर भी प्रसिद्धि मिल रही होती। बहरहाल, श्रीदेवी के किरदार को फैलाने और दिखाने के चक्कर में यह फिल्म बाकी कई किरदारों को खा जाती है। अब ऐसे में नवाजुद्दीन सिद्दिकी हों, अक्षय खन्ना या श्रीदेवी के पति बने पाकिस्तानी कलाकार अदनान सिद्दिकी, सब हल्के ही लगते हैं। और ये फिल्मी पुलिस वाले गलत आदमी के पीछे पड़ने की बजाय पीड़ित के परिवार को धमकाना कब बंद करेंगे यार? श्रीदेवी की बेटी के रोल में पाकिस्तानी अदाकारा सजल अली का काम प्रभावी रहा है। खुद श्रीदेवी कुछ दृश्यों में असर छोड़ती हैं लेकिन उनकी हिन्दी का उच्चारण अभी तक इतना इडली-डोसे वाला क्यों है?
पहली फिल्म के तौर पर निर्देशक रवि उदयावर का प्रयास अच्छा है। उनमें संभावनाएं भी दिखती हैं लेकिन कुल मिला कर यह फिल्म बड़ी ही फिल्मी-सी है। यह कैसे हुआ, क्यों हुआ, उसने यह कैसे कर लिया, इतनी आसानी से उसे कैसे सब मिल गया, टाइप के सवाल अगर आपके मन में उठते हों तो घर बैठिए, नाहक ही थिएटर की कुर्सियों के हत्थे नोचेंगे। हां, टाइम पास के लिए इत्ती भी बुरी नहीं है यह।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
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