अनुराग कश्यप लौट आए हैं। अपने उसी पुराने रंग में, उसी जाने-पहचाने ढंग में।
बरेली शहर का श्रवण सिंह मुक्केबाज़ी में कैरियर बनाना चाहता है। कोच भगवान दास मिश्रा के घर में वह बाकी बाॅक्सरों की तरह नौकरों वाले काम करने से मना करते हुए उन पर हाथ उठा बैठता है। भगवान कसम खा लेता है कि उसे कहीं से भी खेलने नहीं देगा। लेकिन श्रवण जुटा रहता है। एक दिक्कत यह भी है कि श्रवण को प्यार भी भगवान की गूंगी भतीजी सुनयना से हुआ है जिसे पाने के लिए उसे खेलना है और जीतना भी है, ताकि नौकरी मिल सके। लेकिन कदम-कदम पर भगवान उसके रास्ते में कांटें लिए खड़ा है।
कहानी एक साथ कई मोर्चों पर चलती है। खेल वाला पक्ष बेहतरीन है। एक छोटे शहर में बड़े सपने लिए बैठे किसी खिलाड़ी को कितनी और किस-किस तरह की बाधाओं से जूझना पड़ता है, फिल्म इसे विस्तार से दिखाती है। खेल-संघों में कब्जा जमाए बैठे दबंगों की करतूतें, सीमित साधनों के साथ अपने खिलड़ियों को अच्छी ट्रेनिंग दे रहे ईमानदार कोच, खिलाड़ियों की निजी जिंदगी, अपने ही परिवार से मिल रही दुत्कार, खेल-कोटे से नौकरी मिलने पर अफसरों का रवैया जैसी बातें फिल्म को प्रभावी बनाती हैं। वहीं प्रेम-कहानी वाला पक्ष साधारण है। लड़के-लड़की का प्यार और उसमें दुनिया भर की अड़चनें। सबसे बड़ी अड़चन वही खूसट चाचा जिससे लड़के का पंगा चल रहा है। उस चाचा को अपने ब्राह्मण होने का बड़ा दंभ है तो अगर लड़के को दलित दिखा देते तो मामला ज्यादा असरदार हो सकता था। तीसरा पक्ष है इस कहानी में जातिवाद, गौ-रक्षा, बीफ, भारत माता की जय जैसी उन बातों का होना जो मूल कहानी की जरूरत न होते हुए भी फिल्मकार के निजी एजेंडे की पूर्ति के लिए डाली गई लगती हैं। यह पक्ष फिल्मकार के अंध-भक्तों को लुभाएगा तो वहीं निष्पक्ष दर्शकों को अखरेगा।
इंटरवल तक की स्क्रिप्ट काफी मजबूत है। फिल्म देखते हुए लगातार यह उत्सुकता बनी रहती है कि अब कुछ धमाका होगा, अब लड़के पर गाज़ गिरेगी। लेकिन अंत में जब ये सब होता है तो लगता है कि बात डायरेक्टर के हाथ से फिसल गई। भगवान ने श्रवण के साथ बाद में जो किया, वह पहले भी तो कर सकता था। श्रवण ने भगवान से जो माफी मांगी, वह पहले भी तो मांग सकता था। हद से गुजर जाने के बाद आईं ये दोनों ही चीजें असर कम करती हैं। क्लाइमैक्स तो एकदम लुल्ल है। और जब अंत में निर्देशक को लिख कर समझाना पड़े कि जो हुआ वह क्यों हुआ तो सारा खेल ही खराब हो जाता है।
फिल्म के किरदार दिलचस्प हैं। बरेली और बनारस के रंग-ढंग में ढले इन किरदारों के लिए जिन कलाकारों को लिया गया वे एकदम विश्वसनीय लगते हैं। कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा लगातार उम्दा काम कर रहे हैं। हर किसी ने एक्टिंग भी ऐसी की है कि आप उसके असर से अछूते नहीं रह सकते। विनीत कुमार सिंह की ट्रेनिंग के दौरान की गई मेहनत दिखती है। गूंगी बनीं जोया हुसैन तो अपनी चमकती आंखों से बोलती हैं। ये दोनों ही इस साल का हासिल हैं। जिमी शेरगिल, रवि किशन, ‘नदिया के पार’ वाली साधना सिंह और बाकी सब भी बेहतरीन रहे हैं।
फिल्म का एक और मजबूत पक्ष इसके संवाद हैं। स्थानीय बोली में इस्तेमाल किए जाने वाले रोजमर्रा के शब्दों से बुने गए ये डायलाॅग खुद किसी जोरदार पंच से कम नहीं हैं। कैमरे की कारीगरी भी जानदार है। शुरूआती दृश्यों में हैंड-हैल्ड कैमरा का इस्तेमाल रामगोपाल वर्मा की शैली की याद दिलाता है। भीड़ भरी जगहों पर फिल्माए गए सीन प्रभावित करते हैं। अनुराग की फिल्मों में म्यूजिक की अपनी अलग जगह होती है जहां गाने गुनगुनाने के लिए नहीं बल्कि कहानी का असर बढ़ाने के लिए इस्तेमाल होते हैं। फिल्म थोड़ी और छांटी जाती तो ज्यादा कसी हुई लगती। बरेली जैसे शहर में एक आदमी की दबंगई के सामने जेल, पुलिस और मीडिया की निष्क्रियता भी अखरती है।
इस फिल्म में असली वाले अनुराग अपने असर और शैली के साथ मौजूद हैं। लेकिन यह पूरी तरह से बेदाग भी नहीं है। थोड़ा और दिमागी डिटर्जेंट जरूरी था इसे चमकाने के लिए।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
आप का रिव्यू काबिले तारीफ़ है।
ReplyDeleteशुक्रिया... आभार...
DeleteWaah bhai
ReplyDeleteAapke 3 star bhi dekhne ke liye bahut hai
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