Friday, 1 June 2018

रिव्यू-नाम ‘फेमस’ हतो, फिलिम नाहीं

-दीपक दुआ...  (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
चंबल का इलाका। बंदूक के दम पर खुद को धाकड़ मानता एक शख्स। उस धाकड़ के दम पर इलाके में अपनी बादशाहत चलाता एक नेता। जाहिर है हर चीज का वक्त पूरा होता है। एक दिन इनका भी हुआ। कुछ ऐसे लोगों ने बंदूक उठा कर इन्हें जमीन पर गिरा दिया जिन्हें ये लोग कमज़ोर समझा करते थे।

इस किस्म की कहानियां अस्सी के दशक में हुआ करती थीं। इस फिल्म को देखते हुए भी यही लगता है कि आप अतीत में जा पहुंचे हैं। बरसों से बन कर बंद पड़ी इस फिल्म में बासेपन की छाप साफ देखी जा सकती है। 2012 के अंत में चंबल में जब इस फिल्म की शूटिंग चल रही थी तब तिग्मांशु धूलिया इसे प्रोड्यूस कर रहे थे। मुमकिन है इसके बनने के बाद इसकी हालत देख कर वह इस प्रोजेक्ट से हट गए हों। फिल्म की कहानी कहां से शुरू होकर कहां जा रही है, यह तो दिखता है लेकिन बीच-बीच में यह इतनी बार इधर-उधर भटकी है कि शक होता है कि कहीं अलग-अलग लोगों ने इसे लिखा और शूट किया हो और बाद में सबको खुश करने के लिए एक मिक्सचर फिल्म बना दी गई हो।

अधकचरी कहानी पर लिखी बेहद कमजोर स्क्रिप्ट वाली इस फिल्म के संवाद कुछ एक जगह अच्छे हैं। कुछ सीक्वेंस भी कायदे के हैं लेकिन यह सब बेहद कम है। इंटरवल तक फिल्म का जो मिज़ाज है, वह बाद में अचानक से बदल जाता है। कैमरा, लाईटिंग भी हल्की है। हां, बैकग्राउंड म्यूज़िक से अच्छा प्रभाव पैदा किया गया है। करण ललित बुटानी के निर्देशन में बिल्कुल भी नयापन नहीं है। गीत-संगीत चलताऊ किस्म का है।

फिल्म का एकमात्र मज़बूत पक्ष है इसके कलाकार। के.के. मैनन, जिमी शेरगिल, पंकज त्रिपाठी, जैकी श्रॉफ, माही गिल, श्रिया सरण, बृजेंद्र काला, राजेंद्र गुप्ता जैसे तमाम सधे हुए कलाकार इसमें लिए गए हैं जिन्होंने अपनी तरफ भरसक कोशिशें भी कीं। लेकिन जब कथा-पटकथा और डायरेक्शन ही कमजोर हों तो ऐसे कलाकार भी कितना असर छोड़ सकते हैं। वैसे भी जिस फिल्म की कहानी को नैरेशन के जरिए समझाने की जरूरत पड़ जाए तो समझिए, वह कागज़ पर ठीक से उतर ही नहीं पाई। और हां, हर शब्द में लगा देने से चंबल की जुबान नहीं बन जाती। छोटे सैंटर्स के सस्ते थिएटरों में ही कुछ चल सकती है यह।

इस फिल्म में इतनी बार धाकड़ शब्द का इस्तेमाल हुआ है कि लगता है कि पहले इसका नाम धाकड़ही रखा गया था जिसे बाद में फेमस  कर दिया गया। पर यह फिल्म तो धाकड़ निकली और फेमस तो खैर यह होने से रही।
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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