-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
चीन से सरकारी दौरे पर गुजरात आया एक अफसर यहां का एक सूप पीकर मर जाता है। सी.बी.आई. के लोग सूप बेचने वाले डॉक्टर (बोमन ईरानी) और उसे बनाने वाले रघु (राजकुमार राव) तक पहुंचते हैं। आरोप लगता है कि इस सूप में चीन से मंगवाए गए बाघ के शरीर के हिस्से हैं। तब रघु उन्हें पूरी कहानी बताता है कि कैसे हर धंधे में नाकाम होने के बाद उसने इस ‘मैजिक सूप’ का कारोबार शुरू किया जिससे मर्दों की ‘पॉवर’ बढ़ती है। कैसे उसने इस काम में डॉक्टर और बाकी लोगों को जोड़ा। कैसे इन लोगों ने आम जनता में फैली भ्रांतियों को दूर करने का काम किया, वगैरह-वगैरह। पर क्या सचमुच इस सूप में कुछ आपत्तिजनक था? क्या सचमुच वह अफसर इस सूप की वजह से ही मरा?
और क्या सच में यह सूप वायग्रा से कई गुना ज़्यादा ताकतवर है?
इस बार तो इत्ती लंबी कहानी बता दी मैंने। चलिए, यह तो साबित हुआ कि इस फिल्म में एक कहानी तो है। कैसे नहीं होगी, परिंदा जोशी के इसी नाम के उपन्यास पर ही तो यह फिल्म बनी है। मगर किसी उपन्यास में आई और पसंद की गई कहानी पर्दे पर भी उतने ही दमदार तरीके से उभर कर आए,
इसकी कोई गारंटी नहीं होती।
सबसे पहले तो इसे लिखने वाली लेखकों की चौकड़ी ही यह तय नहीं कर पाई कि वह कहना क्या चाहती है? क्या यह कि एक नाकाम आदमी भी कोशिश करे तो कामयाब हो सकता है? क्या यह कि अगर सही तरीके से मार्केटिंग की जाए तो कुछ भी बेचा जा सकता है? क्या यह कि ‘सैक्स-समस्या’ जैसी कोई चीज़ नहीं होती और यह सिर्फ मन का वहम है? या फिर क्या यह कि सैक्स-एजुकेशन पर समाज में खुल कर बात होनी चाहिए?
इस फिल्म को देखिए तो लगता है जैसे चारों लेखक अलग-अलग कहानी लिख कर लाए और डायरेक्टर ने उन सबको घोल कर सूप बना डाला। लेकिन डायरेक्टर साहब इस घोल को गर्म करना तो भूल ही गए। फिल्म के अंदर भी तमाम लोग जिसे ‘मैजिक सूप’ कह रहे हैं उसे वह पानी में घोल कर पी रहे हैं जबकि ‘सूप’ सिर्फ और सिर्फ गर्म पानी में बनता है। भले ही डायरेक्टर मिखिल मुसाले की गुजराती फिल्म राष्ट्रीय पुरस्कार पा चुकी हो लेकिन उन्हें समझना होगा कि ठंडा सूप और ठंडी फिल्म हजम करने लायक नहीं होते। फिल्म की स्क्रिप्ट इस कदर लचर, कमज़ोर, कन्फ्यूज़्ड और बिखरी हुई है कि हैरानी होती है कि दिनेश विजन जैसे निर्माता या राजकुमार राव जैसे अभिनेता ने इसके लिए हामी कैसे भरी होगी। फिल्म शुरू कहीं से होती है और खत्म कहीं पर। किसी सवाल का जवाब नहीं देती और बस अपनी ही हांकती चली जाती है। अपने नाम की टैगलाइन के मुताबिक यह फिल्म कम और जुगाड़
ज्यादा लगती है।
राजकुमार राव के अभिनय में कोई खोट नहीं है। अपने किरदार को वह पकड़ते नहीं, जीते हैं। बोमन ईरानी, गजराज राव, परेश रावल,
मौनी रॉय,
मनोज जोशी, सुमित व्यास जैसे बाकी कलाकार भी असरदार काम करते हैं। लेकिन इन असरदारों की असरदारी किस काम की जब फिल्म का सरदार ही कुछ खास न कर सका। हद है, क्या एक निर्देशक को यह समझ नहीं आता कि उसकी फिल्म के पहिए पटरी छोड़ कर बाकी हर चीज़ पर चल रहे हैं?
इस फिल्म को देख कर यह भी जाना जा सकता है कि चूं-चूं का मुरब्बा वाली कहावत में जो ‘चूं-चूं’ है वह असल में कोई चाईनीज़ चीज़ है। मनोरंजन और मैसेज के नाम पर चूरण चटाती ऐसी फिल्मों की चिंदियां उड़ाई जानी चाहिएं।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
स्क्रिप्ट कमज़ोर हो तो अच्छी खासी कहानी की वाट लग जाती है 😄
ReplyDeleteसही है...
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