दसवीं की छुट्टियां हुईं तो लड़की ने लड़के की शर्ट पर अपने पेन से स्याही छिड़कते हुए कहा-मुझे भूलना मत। इसके बाद ये बिछड़ गए। 22 बरस बाद ये दोनों फिर मिले। लड़के ने अब तक वह शर्ट तह कर के संभाल रखी थी और साथ ही संभाल रखे थे वे सारे पल जो उसने इस लड़की के साथ और इसके बिना गुज़ारे थे। आज इनके पास साथ गुज़ारने को चंद घंटे ही हैं। लेकिन लड़की चाहती है कि कुछ और पल ये दोनों और साथ रह लें। कुछ और पल... बस, कुछ और पल... और इधर आप चाहने लगते हैं कि ये पल पूरी ज़िंदगी में क्यों नहीं बदल जाते।
Sunday, 31 May 2020
Sunday, 24 May 2020
बुक रिव्यू-कलम तोड़ ‘बाग़ी बलिया’
-दीपक दुआ...
बलिया-बिहार को छूता उत्तर प्रदेश का आखिरी जिला। भृगु महाराज की धरती। वामन अवतार में आए विष्णु को तीनों लोक दान में दे देने वाले बलि महाराज की धरती। छात्र राजनीति का अखाड़ा। यहीं के एक कॉलेज में पढ़ते दो जिगरी यार-संजय और रफीक। संजय छात्र संघ का अध्यक्ष बनना चाहता है और रफीक उसे अध्यक्ष बनाना। लेकिन यह इतना आसान भी तो नहीं। राजनीति के चालाक खिलाड़ी कुछ ऐसी साज़िशें रचते हैं कि सब उलट-पुलट हो जाता है। इन हालातों से कैसे निबटते हैं ये दोनों, यही कहानी है सत्य व्यास के इस चौथे उपन्यास ‘बाग़ी बलिया’ की।
Saturday, 16 May 2020
ओल्ड रिव्यू-सच के जुदा चेहरे दिखाती ‘तलवार’
15-16 मई,
2008 की उस रात दिल्ली से सटे नोएडा के जलवायु विहार के उस फ्लैट में सचमुच क्या हुआ था, यह या तो मरने वाले जानते थे या मारने वाले जानते हैं। सालों तक चली तहकीकात में कुछ भी सामने नहीं आया। या फिर आने नहीं दिया गया? कहते हैं कि सच के कई चेहरे होते हैं। 14 साल की आरुषि और उसके अधेड़ उम्र नौकर हेमराज के कत्ल के बाद ऐसे कई चेहरे सामने आए और जिस को जो चेहरा माफिक लगा,
उसने उसी को अपना लिया। इस फिल्म के आने से पहले क्राइम जर्नलिस्ट अविरूक सेन की किताब ‘आरुषि’ को पढ़ने के बाद यह उम्मीद जगी थी कि थोड़ी-सी मेहनत और की गई होती तो इस केस का चेहरा कुछ और होता और काफी मुमकिन है कि अपनी ही मासूम बेटी और अधेड़ नौकर के कत्ल का आरोप झेल रहे तलवार दंपती बेदाग होते।
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