Saturday, 16 May 2020

ओल्ड रिव्यू-सच के जुदा चेहरे दिखाती ‘तलवार’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
15-16 मई, 2008 की उस रात दिल्ली से सटे नोएडा के जलवायु विहार के उस फ्लैट में सचमुच क्या हुआ था, यह या तो मरने वाले जानते थे या मारने वाले जानते हैं। सालों तक चली तहकीकात में कुछ भी सामने नहीं आया। या फिर आने नहीं दिया गया? कहते हैं कि सच के कई चेहरे होते हैं। 14 साल की आरुषि और उसके अधेड़ उम्र नौकर हेमराज के कत्ल के बाद ऐसे कई चेहरे सामने आए और जिस को जो चेहरा माफिक लगा, उसने उसी को अपना लिया। इस फिल्म के आने से पहले क्राइम जर्नलिस्ट अविरूक सेन की किताब आरुषिको पढ़ने के बाद यह उम्मीद जगी थी कि थोड़ी-सी मेहनत और की गई होती तो इस केस का चेहरा कुछ और होता और काफी मुमकिन है कि अपनी ही मासूम बेटी और अधेड़ नौकर के कत्ल का आरोप झेल रहे तलवार दंपती बेदाग होते।

मेघना गुलज़ार की यह फिल्म भी इस उम्मीद को पुख्ता करती है। और भले ही यह अविरूक की किताब पर आधारित हो लेकिन यह वही दिखाती है जो इस किताब में है। किसी कत्ल के बाद क्या हुआ? कैसे हुआ? किसने किया?’ की पड़ताल करती दूसरी फिल्मों से अलग यह फिल्म थ्रिलर नहीं है बल्कि यह पुलिसिया तफ्तीश के विभिन्न पहलुओं को करीब से देखती-दिखाती है। कैसे किसी जांच-अधिकारी की निजी सोच किसी केस की दिशा बदल सकती है, यह फिल्म उस तरफ इशारा करती है और बिना कोई टिप्पणी किए, बिना किसी का कोई पक्ष लिए चुपचाप आपको उन तस्वीरों के सामने ले जाकर खड़ा कर देती है जिन्हें अगर कायदे से जांचा-परखा गया होता तो यह केस किसी और ही सूरत में दुनिया के सामने आया होता।

इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी है इसका लेखन। विशाल भारद्वाज और आदित्य निंबलकर की स्क्रिप्ट इसकी जान है। संवाद रोचक और असरदार हैं। लोकेशन इसे दमदार बनाती है। किरदारों को खड़ा करने में जो मेहनत की गई है, कलाकारों ने अपनी एक्टिंग से उस मेहनत को मंजिल पर ही पहुंचाया है। नीरज कबी, कोंकणा सेन शर्मा, इरफान, सोहम शाह, गजराव राव, सुमित गुलाटी जैसे तमाम कलाकारों का अभिनय विश्वसनीयता की हदें छूता है। मेघना का निर्देशन इतना अधिक सधा हुआ है कि आपको अहसास ही नहीं होता कि आप कोई फिल्म देख रहे हैं।

अविरूक की किताब पढ़ने के बाद भी मुझे लगा था और इस फिल्म को देखने के बाद भी मुझे लगता है कि देर-सवेर इस केस का सच सामने आएगा। वह सच, जिस के चेहरे भले ही कई हों, मगर जिसका वजूद सिर्फ एक होता है।
अपनी रेटिंग-4 स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

1 comment:

  1. सही कहा, एकदम सन्न कर देने वाली फिल्म है।

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