Monday 6 September 2021

रिव्यू-इस ‘हेलमैट’ से सिर मत फोड़िए

यू.पी. का शहर राजनगर। गरीब लड़के को पैसा चाहिए ताकि वह अमीर लड़की से शादी कर सके। अपने दो दोस्तों के साथ मिल कर वह एक ट्रक लूटता है। सोचता है कि डिब्बों में निकलेंगे मोबाइल फोन। लेकिन निकलते हैंहेलमैटयानी कंडोम। अब ये बेचारे क्या करें? ये लोग इनहेलमैटको ही बेचने निकल पड़े। खूब पैसा भी कमाया, मगर...!
 
लिखने वालों ने ऐसी गजब की कहानी लिखी है जिस पर आप हंसते-हंसते लोटपोट हो जाएं और उसमें से मैसेज ऐसा निकले कि आप उस पर लट्टू हो जाएं। लेकिन इन्हीं लिखने वालों ने ऐसी स्क्रिप्ट लिखी है कि आप अपने बाल नोच लें और मुमकिन है कि कोई हेलमैट (असली वाला) उठा कर इनके सिर पर दे मारें। कुल जमा यह फिल्म यह कहती है कि पूरे राज नगर (साफ दिख रहा है कि शूटिंग बनारस की है) में एक भी आदमी नहीं है जो मेडिकल स्टोर पर बिना शर्माएहेलमैटमांग सके। और मेडिकल स्टोर वाला शंभू भी ऐसा खिलाड़ी है कि ग्राहक कोहेलमैटबेचने की बजाय उसकी झिझक की परीक्षा लेता है और अगले दिन उस ग्राहक की पत्नी से मज़े। अब ऐसे में शहर में या तो पत्नियां धड़ाधड़ बच्चे जन रही हैं या पतियों से दूरी बना रही हैं। लेकिन अपने इनक्रांतिकारीचोरों की वजह से पूरे शहर की फिज़ा ही बदल जाती है। जिसे देखो वहीहेलमैटखरीद रहा है।
 
अधपकी कहानी पर छेदों वाली स्क्रिप्ट के साथ-साथ ज़ी-5 पर आई इस फिल्म का निर्देशन भी लचर है। कुछ एक औसत दर्जे की फिल्मों में सहायक निर्देशक रहने के बाद सतराम रमानी ने इस फिल्म में जोकलाकारीदिखाई है वह उनकी पोल खोलने के लिए काफी है। दृश्य-संरचना में तो वह मात खाते दिखे ही, कलाकारों से उनके किरदारों के मुताबिक प्रभावी अभिनय भी वह नहीं करवा पाए। एक डायरेक्टर के तौर पर पटकथा के छेदों और उनमें से रिस रही अतार्किकताओं पर तो उनका नियंत्रण रहा ही नहीं।
 
अपारशक्ति खुराना अच्छा अभिनय कर लेते हैं लेकिनहीरोवाली बात उनमें नहीं है। उनका किरदार भी गड़बड़ है। एक फट्टू और बेईमान नीयत वाले नायक में दर्शक अपना आदर्श भला कैसे तलाशेंगे? प्रनूतन बहल अपनी पिछली फिल्मनोटबुकके बाद से परिपक्व भले हुई हैं लेकिन अभी भी वह सध नहीं पाई हैं। उनके चेहरे पर हर समय बेवजह का तुनकपन उन्हें दर्शकों के करीब नहीं आने देता। उन्हें अनुष्का शर्मा के प्रभाव से भी बचना होगा। अभिषेक बैनर्जी, सानंद शर्मा, आशीष वर्मा, शारिब हाशमी, जमील खान आदि बस ठीकठाक-से रहे। आशीष विद्यार्थी जैसे काबिल अभिनेता का कायदे से इस्तेमाल ही नहीं हो सका। गीत-संगीत साधारण रहा जबकि फिल्म के हीरो को गायक बताया गया है।
 
हर अच्छे आइडिए पर हर बार अच्छी फिल्म ही बन जाया करती तो आज हिन्दी सिनेमा पूरी दुनिया में नाम कमा रहा होता। खैर...! भाई दीनो मोरिया, अगली बार किसी फिल्म पर सोच-समझ कर पैसे लगाना।
 
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। सिनेयात्रा डॉट कॉम(www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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