कुछ महीने पहले आई फिल्म ‘निल बटे सन्नाटा’ में लोगों के घरों में काम करने वाली एक बाई अपनी बेटी को आई.ए.एस. अफसर बनाने के लिए जूझती है। इस फिल्म में एक संवाद था, ‘मां-बाप अपने सपने बच्चों पर नहीं थोपते, उनके बच्चे ही उनका सपना होते हैं।’ इस फिल्म की डायरेक्टर अश्विनी अय्यर तिवारी के पति नितेश तिवारी की ‘दंगल’ भी कुछ ऐसी ही कहानी दिखाती है।
बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के मुहाने पर खड़े हरियाणा का एक अनजान-सा गांव। बेटियों को जन्म देने से हिचकते राज्य की छवि वाले हरियाणा में बेटियां पैदा हो गईं तो मार दी गईं या बेटों के मुकाबले कमतर आंकी गईं और जवान होने से पहले ब्याह दी गईं। ऐसी जगह पर एक ‘बावले’ बाप ने अपनी बेटियों के पहलवानी में नाम कमाने और देश के लिए गोल्ड मैडल लाने का सपना देखा और जुट गया उस सपने को सच करने।
समाज के हाशिये पर बैठे लोगों के उठ कर जूझने और जीतने की कहानियों से मानव-इतिहास भरा पड़ा है। ऐसे विजेताओं की कहानियां दुनिया भर के फिल्मकारों को लुभाती रही हैं क्योंकि इन्हें पढ़ने-देखने वालों को इनके नायकों के संघर्ष में कहीं न कहीं अपने सपनों के सच होने का संघर्ष दिखता है। ‘दंगल’ भी एक ऐसे पिता और उसकी बेटियों की कहानी कहती है जिन्होंने परिवार के, पड़ोसियों के, समाज के ताने झेलने और उनसे पार पाने से पहले खुद से संघर्ष किया। फिल्म दिखाती है कि खुद से संघर्ष करके जीतने वाले लोग किसी से नहीं हारते।
फिल्म पहलवानी के खेल पर बनी है और लगातार इसी ट्रैक पर टिकी रहती है। इसमें न बेकार की कॉमेडी है, न ठूंसा गया मैलोड्रामा, न जबर्दस्ती का एक्शन और न ही वह ‘फिल्मीपन’ जो हमारी हिन्दी फिल्मों में जाने-अनजाने आकर इनके असर को कम करने लगता है। खेल पर बनी फिल्मों में शाहरुख खान की ‘चक दे इंडिया’ को जो मकाम हासिल है, ‘दंगल’ भी उसी पायदान पर बराबर जा खड़ी होती है।
फिल्म की बड़ी खासियत है इसका वास्तविक चित्रण। एक-आध मौके को छोड़ कहीं लगता ही नहीं कि आप किसी फिल्म को देख रहे हैं। लोकेशन इस कदर विश्वसनीय हैं कि आप खुद को वहां पर मौजूद पाते हैं। कुश्ती के खेल को इतनी डिटेल के साथ पहले कभी पर्दे पर नहीं उतारा गया। कैमरा हर चीज को बखूबी पकड़ता है। बैकग्राउंड म्यूजिक दृश्यों के असर को कई गुना बढ़ाता है। गाने ऐसे नहीं हैं जिन्हें सुन कर आप गुनगुनाएं या देख कर झूमें, लेकिन ये कहानी का साथ निभाते हैं और कदम-दर-कदम उसे आगे की ओर ले जाते हैं। पटकथा ऐसी है कि आप लगातार बंधे रहते हैं। संवादों में फालतू का वजन नहीं है लेकिन उनकी गहराई महसूस होती है। एडिटिंग कसी हुई है और नितेश का डायरेक्शन काबिल-ए-तारीफ।
आमिर इस रोल में पूरी तरह से समाए हुए दिखे हैं। नौकरी पाने के बाद कुश्ती से रिटायर हो चुके पहलवान की चुप्पी, एक-एक कर चार बेटियों के पैदा होने की निराशा, अपनी बेटियों में अपने सपने के सच होने की आशा, उन सपनों के लिए जुटे-जूझते बाप का संघर्ष, हर भाव को आमिर पूरे परफैक्शन के साथ उकेर पाए हैं। वह सीन लाजवाब है जहां उनकी बेटी फाइनल में खेल रही है और वह खुद पास ही एक कमरे में बंद हैं। अपनी बेटी को खेलते हुए न देख पाने की बेबसी और फिर राष्ट्रगान बजने पर उसके जीतने की खुशी को वह जिस तरह से जताते हैं, सच में वह हमारे वक्त के बेहतरीन अभिनेता होने का अहसास करा जाते हैं। साक्षी तंवर अंडरप्ले करते हुए अपने किरदार को विश्वसनीय बना जाती हैं। बाकी तमाम कलाकार भी अपनी भूमिकाओं के साथ भरपूर न्याय करते हैं। गीता कुमारी के रोल में फातिमा सना शेख (‘चाची 420’ में कमल हासन-तब्बू की वह प्यारी बेटी) संभावनाएं जगाती हैं। बड़े पर्दे पर धूम मचाने की क्षमता है उनमें।
‘दंगल’ कई मोर्चों पर असर छोड़ती है। यह कोई उपदेश नहीं देती लेकिन बता जाती है कि छोरियां, छोरों से कत्तई कम नहीं होतीं। यह लंबे-लंबे संवाद नहीं बोलती लेकिन समझा जाती है कि हौसलों में जान हो तो सपनों को उड़ान भरने से कोई नहीं रोक सकता। यह नारे नहीं लगाती मगर देश के लिए कुछ कर दिखाने का जज्बा जगा जाती है। यह चुटकुले नहीं सुनाती लेकिन आपको हंसा जाती है। यह एक्शन या थ्रिल नहीं परोसती लेकिन आपकी मुट्ठियां भिंचवा जाती है। यह मैलोड्रामा नहीं दिखाती लेकिन आपको भावुक करके आंखों में नमी छोड़ जाती है। सिनेमा की यही सफलता है कि वह आपको अपने संग लेकर चले और जब आप उसे छोड़ कर बाहर निकलें तो वह आपके संग दूर तक चलता रहे।
अपनी रेटिंग-साढ़े चार स्टार
(नोट-फिल्म ‘दंगल’ का मेरा यह रिव्यू देश के कई स्कूलों में आठवीं कक्षा के हिन्दी पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है)