Friday, 2 December 2016

रिव्यू-‘कहानी 2’ की कहानी में कितना दम...?

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
किसी फिल्म को सफलता और तारीफें मिलने के बाद उसी कतार में कोई फिल्म आए तो पिछली वाली फिल्म से उसकी तुलना जरूरी भले हो, स्वाभाविक तो होती ही है। कहानी 2-दुर्गा रानी सिंहके साथ भी ऐसा अवश्य होगा। (जी हां, इस फिल्म का पूरा नाम यही है। हालांकि इतना लंबा नाम क्यों है, इसकी जरूर कोई तकनीकी वजह ही रही होगी वरना कहानी 2’ भी पर्याप्त था) हर कोई इसे पौने पांच साल पहले आई कहानीसे तौल कर देखेगा क्योंकि इस फिल्म के निर्देशक भी सुजॉय घोष हैं, नायिका विद्या बालन हैं, शहर कोलकाता है और फ्लेवर रहस्य-रोमांच का है। मगर यह तुलना करने पर निराशा ही हाथ लगती है और इसकी वजह है कहानी का अचानक कमजोर पड़ कर पटरी से फिसल जाना।
पहले यह बात भी साफ हो जाए कि यह फिल्म कहानीका सीक्वेल नहीं बल्कि उसी ब्रांड की अगली कड़ी है। विद्या इस बार दो किरदारों में हैं। एक में वह कोलकाता में काम करने वाली विद्या सिन्हा हैं जो अचानक किडनैप हो गईं अपनी अपाहिज किशोरी बेटी को बचाने की जद्दोजहद में हैं। वहीं दूसरी ओर वह एक छोटे शहर में रहने वाली दुर्गा रानी सिंह हैं जो एक बच्ची को उसके अपनों से ही बचाने में लगी हैं। पर क्या ये दोनों औरतें एक ही हैं? दुर्गा अपने काम में कितनी सफल होती हैं? विद्या अपनी बेटी को बचा पाती हैं या नहीं? ऐसे कई सवालों के जवाब फिल्म रफ्ता-रफ्ता देती है।

पहले ही सीन से फिल्म आपको बांधने लगती है। दृश्यों की गति और हिलते-डुलते कैमरे के चलते कहानी के भीतर का तनाव दर्शक को भी महसूस होने लगे तो यह फिल्म की सफलता है। रंगों, लोकेशन और सैट के उचित इस्तेमाल से फिल्म एक विश्वसनीय माहौल में ले जाती है। किरदारों के सटीक चित्रण और असरदार संवादों से निर्देशक हमें कहानी से जोड़ पाने में कामयाब भी होते हैं। अपने ही घर की दीवारों के भीतर अपनों के ही हाथों नन्हीं बच्चियों के यौन-शोषण के मुद्दे को फिल्म बहुत ही सहज और प्रभावी ढंग से उठाती है। इंटरवल तक तो फिल्म इस कदर बांधे रखती है कि लगता है कि इस बार भी आप कहानीकी तरह सन्न होकर ही थिएटर से बाहर निकलेंगे। लेकिन अफसोस, ऐसा हो नहीं पाता।

इस कहानी को प्रभावी बनाने के फेर में कई गैरजरूरी चीजों का समावेश इसके असर को कम करने लगता है। दुर्गा के प्रेम-प्रसंगों की फिल्म में आवश्यकता ही नहीं थी। वहीं दुर्गा और विद्या के किरदारों के रहस्य का शुरू में ही खुल जाना रोमांच कम कर देता है। दुर्गा की डायरी से कहानी को अतीत में दिखाने की बजाय अगर दोनों ट्रैक समानांतर चलाए जाते और काफी देर के बाद दोनों किरदारों के सस्पैंस को झटके से खोला जाता तो दर्शक को ज्यादा आनंद आता। फिर इंटरवल के बाद फिल्म कई जगह फिल्मीहोने लगती है। आगे आने वाली घटनाओं का आभास और उनमें भी मसाला फिल्मों के फार्मूलों का इस्तेमाल इसकी गहराई को कम करने लगता है।

विद्या अपने किरदार में गहरे गोते लगाती हैं। अर्जुन रामपाल सहज रहे हैं। उनकी पत्नी के रोल में माणिनी चड्ढा प्रभावित करती हैं। इंस्पैक्टर हलधर के रोल में खराज मुखर्जी बेहद उम्दा काम कर गए हैं। सहयोगी कलाकार फिल्म का माहौल गढ़ने में मदद करते हैं। जुगल हंसराज साधारण रहे। पिछली वाली फिल्म में सुजाॅय ने कोलकाता शहर को भी एक किरदार बना दिया था। इस बार वह पश्चिम बंगाल के अन्य हिस्सों से भी परिचित करवाते हैं लेकिन कोलकाता उतना प्रभावी नहीं लग पाता।

पिछली फिल्म जितने रहस्य-रोमांच की उम्मीद रखे बिना अपने संवेदनशील विषय और उसके उम्दा चित्रण के लिए यह फिल्म देखी जानी चाहिए। लेकिन सुजॉय को यह ध्यान रखना होगा कि कहानी 3’ में वह बेहतर और बेजोड़ कहानी लाएं वरना कहानीकी कहानी खत्म होते देर लगेगी।
अपनी रेटिंग-2.5 स्टार

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