Saturday 21 January 2017

रिव्यू-कम मीठी कम कड़क ‘कॉफ़ी विद् डी’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
डी यानी अंडरवल्र्ड डॉन दाऊद इब्राहिम दुनिया भर के लोगों, सरकारों और मीडिया के लिए एक अलग ही किस्म के आकर्षण का केंद्र रहा है। इस शख्स से जुड़े सच्चे-झूठे किस्सों को लेकर अगर रचने बैठें तो ढेरों किस्म की कहानियां बुनी जा सकती हैं। यह फिल्म भी ऐसा ही कुछ कर रही है जिसमें अपने टी.वी. चैनल की रेटिंग बढ़ाने के लिए एक पत्रकार डी से जुड़ी झूठी कहानियां चैनल पर दिखाता है ताकि डी उसे खुद बुला कर अपना इंटरव्यू दे। मामला रोचक लगता है। दिलचस्प बात यह है कि पत्रकार का किरदार असल पत्रकार अर्णब गोस्वामी सरीखा है जो अपने टी.वी. शोज में इंटरव्यू देने वाले पर बुरी तरह हावी हो जाते हैं। इसके अलावा भी कई रोचक चीजें फिल्म में हैं। बावजूद इसके यह फिल्म पूरी तरह से रोचक नहीं बन पाई है क्योंकि इसकी स्क्रिप्ट और डायरेक्शन में वह पैनापन नहीं है जो इस किस्म की कहानियों के लिए जरूरी होता है।

कुछ बरस पहले ऐसी ही कहानी पर तेरे बिन लादेनआई थी जिसमें एक पाकिस्तानी टी.वी. पत्रकार नकली लादेन का इंटरव्यू लेता है और दुनिया उसे असली समझ लेती है। लेकिन वह फिल्म पूरी तरह से हास्य और तंज की पटरी पर टिकी रही थी जबकि यह फिल्म लड़खड़ाती दिखाई देती है। सिनेमाई ढांचे का सीधा-सा मंत्र है कॉमेडी करो तो जम कर करो और अगर चोट मारनी है तो जोरदार मारो। यह फिल्म इसी असमंजस का शिकार नजर आती है कि इसे कॉमेडी फिल्म बनाया जाए या हार्ड-हिटिंग। इसकी स्क्रिप्ट का कई जगह ढीला पड़ना, लंबे और बेवजह आने वाले सीन फिल्म को कमजोर बनाते हैं।

हालांकि ऐसा भी नहीं है कि फिल्म पूरी तरह से पैदल है। हर कुछ देर बाद कोई न कोई सीन आकर हंसा जाता है। हास्य के जरिए कुछ सार्थक कहने की कोशिश भी दिखाई देती है। लेकिन ये चीजें बस टुकड़ों-टुकड़ों में ही अच्छी लगती हैं और लंबे समय तक असर नहीं छोड़ पातीं। ऊपर से कुछ बातें सेंसर ने उड़ा दीं तो कुछ दुबई से आए फोन ने और इसकी वजह से बार-बार म्यूट होते और आवाज बदल कर आते संवाद मजा और कम करते हैं।

सुनील ग्रोवर साबित करते हैं कि वह सिर्फ गुत्थी या डॉ. मशहूर गुलाटी ही नहीं हैं बल्कि मौका मिले तो वह इनसे हट कर भी कुछ कर सकते हैं लेकिन दिक्कत यह रही कि उनका किरदार शुरू में ज़ोरदार होते हुए बाद में कमजोर पड़ जाता है। डी बने जाकिर हुसैन जंचते हैं और सुनील उनके सामने फीके-से लगने लगते हैं। क्लोज-अप में सुनील नहीं जंचते। पंकज त्रिपाठी और राजेश शर्मा हर बार की तरह उम्दा काम कर गए। दीपानिता शर्मा और अंजना सुखानी के किरदार ही बिल्कुल हल्के थे। फिर भी अंजना अपने रोल को कायदे से कर गईं। म्यूजिक कुछ खास नहीं रहा। असल में पूरी फिल्म ही कुछ खास नहीं रही जबकि ऐसी ही फिल्में होती हैं जो कायदे से बुनी-बनाई जाएं तो बड़े बजट और चमकते चेहरों वाली फिल्मों को चुनौती देकर दिलों में उतर सकती हैं। पहली बार निर्देशन के मैदान में उतरे विशाल मिश्रा थोड़े और संभल कर चलते तो यह एक कमाल की फिल्म हो सकती थी। मगर अभी तो यह वाली कॉफ़ी कम मीठी, कम कड़क और हल्की झाग वाली ही है।
अपनी रेटिंग-दो स्टार

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