कहते हैं कि साल की शुरूआत अच्छी हो तो पूरा साल अच्छा बीतता है। पर क्या आप यकीन करेंगे कि हमारे फिल्म वाले साल के पहले शुक्रवार को फिल्में लाने से बचते हैं? क्यों होता है ऐसा? क्या वाकई साल का पहला शुक्रवार नई फिल्मों के लिए मनहूस होता है या फिर यह महज एक मिथ ही है?
वैसे तो साल भर में से ऐसे कई मौके होते हैं जब फिल्मवाले बड़ी फिल्मों की रिलीज से बचते हैं। लेकिन उन शुक्रवारों मसलन स्कूल-कॉलेज की परीक्षाओं के दिन, क्रिकेट के सीजन, रमजान के महीने या दीवाली से पहले के दो हफ्ते आदि में बड़ी फिल्मों को न लाने के पीछे विशुद्ध कारोबारी सोच और कारण होते हैं क्योंकि इन दिनों में वाकई ज्यादातर दर्शकों का रुझान नई फिल्मों की ओर नहीं होता है मगर साल के पहले शुक्रवार को अपनी फिल्में न लाने के पीछे कोई ठोस कारण, कोई तर्क नजर नहीं आता है। दरअसल इस चलन के पीछे सिवाय अंधविश्वास के और कुछ नहीं है। बदकिस्मती से कई बार ऐसा हुआ कि कोई बड़ी फिल्म पहले शुक्रवार को आई और पिट गई, इसके बाद यह सोच बन गई कि पहले शुक्रवार को फिल्म नहीं लानी है।
असल में फिल्मों का बिजनेस इतना ज्यादा अनिश्चितताएं लिए हुए होता है कि करोड़ों रुपए लगाने के बाद भी सफलता पाने के लिए लोग हर तरह की कवायद करते रहते हैं। इस में फिल्म के नाम से लेकर खुद अपने नाम तक के स्पेलिंग बदलने बदलने जैसी बचकानी कोशिशें भी शामिल रहती हैं। ऐसे माहौल में इंसान ऐसे किसी भी रास्ते पर जाने से हिचकता है जहां पर किसी भी किस्म की कोई अपशगुनी मुंह बाए खड़ी हो। कुछ साल पहले तक साल के पहले शुक्रवार को बड़ी फिल्में आया करती थीं। लेकिन इनमें से आमिर खान की ‘मेला’, अनिल कपूर-रवीना टंडन की ‘बुलंदी’, रेखा-महिमा चौधरी की ‘कुड़ियों का है जमाना’, इमरान हाशमी की ‘जवानी दीवानी’, जाएद खान-अमीषा पटेल की ‘वादा’, दीनो मोरिया-बिपाशा बसु की हिट जोड़ी वाली ‘इश्क है तुमसे’, संजय दत्त की ‘पिता’ जैसी बड़े नाम वालों की बड़ी फिल्में पिट गईं और साल का पहला शुक्रवार मनहूस माना जाने लगा। वैसे यह भी तय है कि ये फिल्में ही इस लायक नहीं थीं कि ये ज्यादा चल पातीं मगर बजाय इन से कोई सबक हासिल करने के फिल्म वालों ने यह मान लिया कि चूंकि ये फिल्में साल के पहले शुक्रवार को आई थीं इसीलिए पिट गईं और आगे से हम साल के पहले शुक्रवार को कोई बड़ी फिल्म नहीं लाया करेंगे।
एक सच यह भी है कि लगभग सभी फिल्म वाले अंदर से काफी डरे हुए होते हैं और यही वजह है कि वह सुपरहिट होने का दम रखने वाली अपनी फिल्म को भी ऐसे किसी मौके पर लाने से हिचकते हैं जिस के साथ कोई ऐसी-वैसी बात जुड़ी हो। वरना क्या वजह है कि 2000 में राकेश रोशन अपने बेटे हृतिक की पहली फिल्म ‘कहो ना प्यार है’ को 14 जनवरी यानी दूसरे शुक्रवार को लाए जबकि वह इसे बड़ी आसानी से 7 जनवरी को भी ला सकते थे। 2007 मे मणिरत्नम की ‘गुरु’, 2014 में ‘यारियां’, 2011 में ‘यमला पगला दीवाना’ भी दूसरे शुक्रवार को ही आई। ये सभी फिल्में काफी चली थीं पर अगर ये दूसरे की बजाय पहले शुक्रवार को आतीं तो क्या नहीं चल पातीं?
वैसे एक तार्किक कारण यह माना जा सकता है कि चूंकि इधर कुछ साल से क्रिसमस पर ऐसी फिल्म आती है जो काफी बड़ी हिट साबित होती है तो दर्शक उसके ठीक बाद एक और बड़ी फिल्म के लिए तैयार नहीं होते। फिर क्रिसमस और नए साल के जश्न के अलावा स्कूल-कॉलेज की छुट्टियों के चलते लोग घूमने-फिरने में व्यस्त होते हैं तो ऐसे में वे फिल्मों पर पैसे नहीं खर्चना चाहते। पर गौर करें तो यह तर्क भी खोखला
ही नजर आता है।
इसलिए अब हो यह रहा है कि पहले शुक्रवार को ‘बी’ और ‘सी’ ग्रेड की फिल्में मैदान खाली समझ कर आ जाती हैं और जब ये नहीं चल पातीं तो कसूर बेचारे पहले शुक्रवार के माथे पर मढ़ दिया जाता है। अब 2016 में ही देखिए कि पहले शुक्रवार को कोई बड़ी फिल्म नहीं आई और उसके बाद फरहान अख्तर-अमिताभ बच्चन वाली ‘वजीर’ आकर सराही गई जबकि 18 दिसंबर, 2015 को ‘दिलवाले’ और ‘बाजीराव मस्तानी’ के आने के बाद खाली पड़े मैदान में आकर कोई भी अच्छी फिल्म आसानी से चल सकती थी। 2017 में पहले शुक्रवार को कोई बड़ी फिल्म नहीं है जबकि ‘दंगल’ की सफलता का गुबार अब थम चुका है। लेकिन नहीं, मनहूसियत के मिथ से कौन पंगा ले? 6 जनवरी 2017 को 'कॉफी विद डी' आनी थी और इस फिल्म से कुछ उम्मीदें
भी थीं, लेकिन यह विवादों में फंस गई और जो 'प्रकाश इलेक्ट्रॉनिक्स' आई है वह बिल्कुल थकी हुई है।
जरा सोचिए कि अगर ‘रब ने बना दी जोड़ी’, ‘गोलमाल’, ‘3 ईडियट्स’, ‘बजरंगी भाईजान’ जैसी कोई फिल्म साल के पहले शुक्रवार को लाई जाए तो क्या वह पिट जाएगी? या फिर अगर ‘दंगल’ 23 दिसंबर, 2016 की बजाय 6 जनवरी, 2017 को आती तो बिल्कुल नहीं चलती? पर यह हिम्मत दिखाए कौन? यहां तो खट्टे दही की बदनामी को हांडी के सिर मढ़ने वालों की भीड़ है।
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