-दीपक दुआ... (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
संदीप सिंह-भारतीय हॉकी का सितारा। दुनिया का सबसे तेज ड्रैग-फ्लिकर। अचानक एक गोली चली और वो व्हील-चेयर का मोहताज हो गया। लेकिन बंदे ने हिम्मत नहीं हारी। अपने जीवट से वो न सिर्फ दोबारा खड़ा हुआ, दौड़ा,
खेला, बल्कि इंडियन टीम का कप्तान भी बना।
है न दमदार कहानी? भला
कौन प्रेरित नहीं होगा इस कहानी से। ऐसी कहानियों पर फिल्में बननी ही चाहिएं ताकि लोगों को प्रेरणा मिले, हारे
हुओं को हौसला मिले। जीतने की ताकत देती हैं ऐसी कहानियां। पर क्या सिर्फ यह कहानी कह देना भर ही काफी होगा? ऐसा
ही होता तो इस पर फिल्म की क्या ज़रूरत थी?
सिनेमा की अपनी एक अलग भाषा होती है। किसी कहानी को पर्दे पर उतारने से पहले कागज़ पर उसकी तामीर होती है, उसके
बाद वो कैमरे की नज़र से देखी-दिखाई जाती है। बतौर निर्देशक शाद अली अपने गुरु मणिरत्नम के साथ रह कर इतना तो जानते ही हैं कि यह सारी कसरतें कैसे की जाती हैं। लेकिन उनकी पिछली दो फिल्में (किल दिल, ओके
जानू) बताती हैं कि उनके भीतर उतनी गहरी समझ और नज़र नहीं है कि वो किसी कहानी के तल में गोता मार कर मोती चुन लाएं।
संदीप सिंह की कहानी को फिल्मी पटकथा में तब्दील करते हुए लेखकों को वही पुराना घिसा-पिटा आइडिया ही सूझा कि संदीप ने एक लड़की के लिए हॉकी खेलनी शुरू की और लड़की के दूर चले जाने पर ही उसके अंदर की आग तेज हुई। फिल्म है तो काफी कुछ ‘फिल्मी’
होना लाजिमी है। लेकिन जब असली कंटेंट ही हल्का पड़ने लगे, फिल्म
कहीं बेवजह खिंचने लगे, कभी
झोल खाने लगे, कुछ
नया कहने की बजाय सपाट हो जाए, जिसे
देखते हुए मुट्ठियां न भिंचें, धड़कनें
न तेज हों और एक प्रेरक कहानी दिल में उतरने की बजाय बस छू कर निकल जाए तो लगता है कि चूक हुई है और भारी चूक हुई है। इसी कहानी को कोई महारथी डायरेक्टर मिला होता तो यह पर्दा फाड़ कर जेहन पर काबिज हो सकती थी। काश, कि
यह फिल्म अपने नाम के मुताबिक तगड़ी होती।
संदीप के किरदार में दिलजीत दोसांझ असरदार रहे हैं। हालांकि शुरूआत के सीक्वेंस में वह किरदार से ज्यादा बड़े लगे हैं। तापसी पन्नू का सहयोग उम्दा रहा। संदीप के बड़े भाई के रोल में अंगद बेदी का काम ज़बर्दस्त रहा। विजय राज जब-जब दिखे, कमाल
लगे। सतीश कौशिक और कुलभूषण खरबंदा भी जंचे। गुलज़ार के गीत और शंकर-अहसान-लॉय का संगीत अच्छा होने के बावजूद गहरा असर छोड़ पाने में नाकाम रहा। ‘इश्क
दी बाजियां...’ के बोल प्यारे हैं। लोकेशन, कैमरा
सटीक रहे। लेकिन सिक्ख परिवार की कहानी दिखाती फिल्म में पंजाबी शब्दों की बजाय बेवजह आए हिन्दी शब्द अखरते हैं।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
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