Saturday, 27 October 2018

यात्रा-गुजरात में गरबा देख अचंभित हुए हम

-दीपक दुआ...
नवरात्रि यानी गरबा और गरबा यानी गुजरात। गुजरात टूरिज़्म की तरफ से इस बरस नवरात्रि-उत्सव देखने और कवर करने का न्योता आया तो मन में डांडिया की धुन और गरबा की गूंज सुनाई देने लगी थी। सच कहूं तो इससे पहले मैंने डांडिया या गरबा सिर्फ फिल्मी पर्दे पर ही देखा था। और वैसे भी दिल्ली में रहने वाले मुझ जैसे पंजाबी शख्स के लिए डांस का मतलब भांगड़ा होता है, गरबा नहीं।

Friday, 26 October 2018

रिव्यू-बिना घी की खिचड़ी है ‘बाज़ार’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
इलाहाबाद के लौंडे को यह शहर छोटा लगता है, अपने पिता की ईमानदारी और वफादारी ओछी लगती है। उसे तो मुंबई जाना है, ऊंचा उड़ना है। अपने भगवान शकुन कोठारी की तरह पैसे कमाने हैं। मुंबई पहुंचने के छह ही महीने में वह शकुन का खास आदमी बन भी जाता है। लेकिन उसकी अंतरात्मा उसे शकुन की तरह गलत रास्ते पर चलने से रोक लेती है और वह अपने इस गुरु को ही सबक सिखाने में जुट जाता है।

Thursday, 18 October 2018

रिव्यू-‘बधाई हो’, बढ़िया फिल्म हुई है...!

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
दिल्ली का मध्यवर्गीय खुशहाल परिवार। पिता रेलवे में, मां घर में। बड़ा बेटा नौकरी में, छोटा बारहवीं में। दादी खटिया पर। तभी पता चला कि घर में एक नन्हा मेहमान आने वाला है। मां, फिर से मां बनने वाली है। भूचाल गया जी। बेटों ने मां-बाप से मुंह मोड़ लिया, दादी ने बेटे-बहू से। परिवार, मौहल्ले, बिरादरी, समाज में छिछालेदार होने लगी, सो अलग। लेकिन अंत भला, तो सब भला।

Monday, 15 October 2018

रिव्यू-सिनेमाई खज़ाने की चाबी है ‘तुम्बाड’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critic Reviews)
दुनिया में हर एक की ज़रूरत पूरी करने का सामान है, लेकिन किसी का लालच पूरा करने का नहीं।महात्मा गांधी के इस कथन से शुरू होने वाली यह फिल्म अपने पहले ही सीन से आपको एक ऐसी अनोखी दुनिया में ले चलती है जो इससे पहले किसी हिन्दी फिल्म में तो क्या, शायद किसी भारतीय फिल्म में भी कभी नहीं दिखी होगी। महाराष्ट्र का एक वीरान गांव-तुम्बाड, जहां हर वक्त बारिश होती रहती है क्योंकि देवता क्रोधित हैं। इसलिए कि पूरी धरती को अपनी कोख से जन्म देने वाली देवी ने अपनी सबसे पहली संतान हस्तर को उनके हाथों मरने से बचा लिया था। वही लालची हस्तर, जो देवी के एक हाथ से बरसते सोने को तो ले गया लेकिन देवताओं ने उसे दूसरे हाथ से बरसते अनाज को नहीं ले जाने दिया। उसी हस्तर के मंदिर के पुजारियों के परिवार में भी दो तरह की संतानें हुईं-लालची और संतुष्ट। 1913 के साल में ये लोग यहां से चले तो गए लेकिन लालची विनायक लौटता रहा और हस्तर के खज़ाने से अपनी जेबें भर-भर ले जाता रहा। उसने अपने बेटे को भी सिखाया कि यह खज़ाना कैसे हाथ लगता है। लेकिन विनायक अपनी दादी की कही यह बात भूल गया कि-विरासत में मिली हुई हर चीज़ पर दावा नहीं करना चाहिए।

Saturday, 6 October 2018

रिव्यू-रहस्य और रोमांच में लिपटी संगीतमय ‘अंधाधुन’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
फ्रैंच शॉर्ट-फिल्म  पियानो ट्यूनर' में ए अंधा पियानो वादक बताता है कि शाहजहां ने ताजमहल का नक्शा बनाने वाले वास्तुकार की पत्नी को मरवा दिया था कि ताकि वह अपनी पत्नी की जुदाई के दर्द को महसूस कर सके और शाहजहां की पत्नी का एक भव्य मकबरा बना सके।

कलाकार ऐसे ही होते हैं-जुनूनी, अपनी धुन के पक्के, अपनी कला के लिए अंधे और तभी वे ऊंचाइयां छू पाते हैं। इस फिल्म का नायक आकाश भी ऐसा ही एक अंधाऔर अपनी धुनका पक्का पियानो प्लेयर है (वरना हिन्दी में अंधाधुनकोई शब्द नहीं होता) उसकी ज़िंदगी सही जा रही है। पियानो बजाता है, सिखाता है, संयोग से एक गर्लफ्रैंड भी मिल जाती है। लेकिन एक दिन वह एक खून होते हुए देखलेता है। अब अंधा आदमी देखकैसे सकता है? और यहीं से शुरू होती है छल, कपट और धोखे की एक अंधी दौड़ जिसमें कोई भी पाक-साफ नहीं है। हर किसी के अपने छुपे हुए इरादे हैं, स्वार्थ हैं। दूसरों को मात देकर खुद की जीत पक्की करने के इस शतरंजी खेल में ढेरों ट्विस्ट एंड टर्न्स हैं और यही घुमावदार मोड़ फिल्म के दौरान सिर्फ आपको लगातार बांधे रखते हैं बल्कि एक पल के लिए भी आपको अपनी नज़रें इधर-उधर नहीं करने देते।