-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
फ्रैंच शॉर्ट-फिल्म ‘द पियानो ट्यूनर' में एक अंधा पियानो वादक बताता है कि शाहजहां ने ताजमहल का नक्शा बनाने वाले वास्तुकार की पत्नी को मरवा दिया था कि ताकि वह अपनी पत्नी की जुदाई के दर्द को महसूस कर सके और शाहजहां की पत्नी का एक भव्य मकबरा बना सके।
कलाकार ऐसे ही होते हैं-जुनूनी, अपनी धुन के पक्के, अपनी कला के लिए अंधे और तभी वे ऊंचाइयां छू पाते हैं। इस फिल्म का नायक आकाश भी ऐसा ही एक ‘अंधा’ और अपनी ‘धुन’ का पक्का पियानो प्लेयर है (वरना हिन्दी में ‘अंधाधुन’ कोई शब्द नहीं होता)। उसकी ज़िंदगी सही जा रही है। पियानो बजाता है, सिखाता है, संयोग से एक गर्लफ्रैंड भी मिल जाती है। लेकिन एक दिन वह एक खून होते हुए ‘देख’ लेता है। अब अंधा आदमी ‘देख’ कैसे सकता है? और यहीं से शुरू होती है छल, कपट और धोखे की एक अंधी दौड़ जिसमें कोई भी पाक-साफ नहीं है। हर किसी के अपने छुपे हुए इरादे हैं, स्वार्थ हैं। दूसरों को मात देकर खुद की जीत पक्की करने के इस शतरंजी खेल में ढेरों ट्विस्ट एंड टर्न्स हैं और यही घुमावदार मोड़ फिल्म के दौरान न सिर्फ आपको लगातार बांधे रखते हैं बल्कि एक पल के लिए भी आपको अपनी नज़रें इधर-उधर नहीं करने देते।
फ्रैंच शॉर्ट-फिल्म ‘द पियानो ट्यूनर' में एक अंधा पियानो वादक बताता है कि शाहजहां ने ताजमहल का नक्शा बनाने वाले वास्तुकार की पत्नी को मरवा दिया था कि ताकि वह अपनी पत्नी की जुदाई के दर्द को महसूस कर सके और शाहजहां की पत्नी का एक भव्य मकबरा बना सके।
कलाकार ऐसे ही होते हैं-जुनूनी, अपनी धुन के पक्के, अपनी कला के लिए अंधे और तभी वे ऊंचाइयां छू पाते हैं। इस फिल्म का नायक आकाश भी ऐसा ही एक ‘अंधा’ और अपनी ‘धुन’ का पक्का पियानो प्लेयर है (वरना हिन्दी में ‘अंधाधुन’ कोई शब्द नहीं होता)। उसकी ज़िंदगी सही जा रही है। पियानो बजाता है, सिखाता है, संयोग से एक गर्लफ्रैंड भी मिल जाती है। लेकिन एक दिन वह एक खून होते हुए ‘देख’ लेता है। अब अंधा आदमी ‘देख’ कैसे सकता है? और यहीं से शुरू होती है छल, कपट और धोखे की एक अंधी दौड़ जिसमें कोई भी पाक-साफ नहीं है। हर किसी के अपने छुपे हुए इरादे हैं, स्वार्थ हैं। दूसरों को मात देकर खुद की जीत पक्की करने के इस शतरंजी खेल में ढेरों ट्विस्ट एंड टर्न्स हैं और यही घुमावदार मोड़ फिल्म के दौरान न सिर्फ आपको लगातार बांधे रखते हैं बल्कि एक पल के लिए भी आपको अपनी नज़रें इधर-उधर नहीं करने देते।
रहस्य-रोमांच परोसने में निर्देशक श्रीराम राघवन को महारथ हासिल है। ‘एक हसीना थी’,
‘बदलापुर’
और अब तक के उनके सर्वश्रेष्ठ काम ‘जॉनी गद्दार’
में वह लगातार बताते हैं कि जिंदगी और रिश्तों की पेचीदगियों को एक जुदा नजर से देखने और दिखाने का हुनर उन्हें बखूबी मालूम है। उस पर से कहानी कहने की उनकी शैली उन्हें अपने यहां के दूसरे फिल्मकारों से अलग और ऊंचे मकाम पर खड़ा करती है। इस फिल्म में भी वह अपने चिर-परिचित स्टाइल में शुरू में एक सीन दिखाते हैं और एकदम अंत में जाकर उस सीन की अहमियत बताते हैं। अरिजित विश्वास, पूजा लाढ़ा सुरती,
योगेश चंदेकर के साथ मिल कर राघवन स्क्रिप्ट को इस कदर उलझाते हुए फैलाते हैं कि दर्शक उसमें फंसता चलता जाता है। यह उलझन इस फिल्म की खूबी भी है और कुछ हद तक खामी भी। दर्शक को लगातार दिमागी कसरत करनी पड़ती है कि आखिर क्या हो रहा है,
क्यों हो रहा है और जो दिख रहा है, क्या सचमुच वही हो रहा है?
यहां तक कि अंत में भी राघवन एक ऐसे मोड़ पर फिल्म खत्म कर देते हैं कि दर्शक देर तक सोचता रहे और अपनी समझ से जैसा चाहे,
मतलब निकाल ले। पूरी फिल्म के दौरान एक अनकही बेचैनी,
उत्सुकता और हल्की मुस्कुराहट बनी रहती है। हां,
आज के दौर की कहानी कहती फिल्म में कहीं सी.सी.टी.वी. कैमरा न दिखाना जरूर अखरता है।
राघवन इस फिल्म में कैमरे और एडिटिंग से भी कमाल करते हैं। सिनेमैटोग्राफर के.यू. मोहनन बताते हैं कि कैमरे के एंगल और करतबों से किसी सीन का प्रभाव कैसे बढ़ाया जाता है। वहीं कुछ सीन ऐसे हैं जिन्हें देखते समय लगता है कि फिल्म भटक रही है लेकिन कुछ देर बाद पता चलता है कि वे सीन क्यों जरूरी थे। बैकग्राउंड म्यूजिक भी इस फिल्म के असर को भरपूर गाढ़ा करने का काम करता है। गाने अपनी जगह फिट नजर आते हैं। पुरानी फिल्मों के गानों और उनके पियानो-सीक्वेंस को दिखा कर राघवन गुजरे दौर की हिन्दी फिल्मों को ट्रिब्यूट देते हैं।
फिल्म की कास्टिंग कमाल की है। बीते दौर के एक सुपरस्टार के किरदार में अनिल धवन जितने जंचते हैं, उनकी चंट बीवी के रोल में तब्बू उतना ही असर छोड़ती हैं। आयुष्मान खुराना,
राधिका आप्टे, गोपाल के. सिंह,
जाकिर हुसैन, अश्विनी कलसेकर, छाया कदम खरा काम करते हैं। अलबत्ता मानव विज की जुबान कहीं-कहीं उनके पंजाबी होने की चुगली खा जाती है जबकि कहानी पुणे शहर के मराठी मानुसों की है। पुणे शहर को भी यहां एक किरदार मिला है और उस बिल्ली को भी,
जो आकाश के घर में रहती है।
इस तरह की मैच्योर स्टोरीटेलिंग अपने यहां कम ही देखने में आती है और इसीलिए जो दर्शक इस किस्म की फिल्मों में भी पकी-पकाई, सुलझी-सुलझाई कहानियां देखने के आदी हो चुके हैं,
उन्हें इसे समझने में ज्यादा मेहनत करनी होगी।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
(यह रिव्यू 6 अक्टूबर,
2018 के हिन्दी दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित हो चुका है।)
बहुत बढ़िया समीक्षा। फ़िल्म तो देखनी पड़ेगी
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteकल ही देखनी है
ReplyDeleteउत्तम...
Deleteवाकई में, बेहतरीन समीक्षा। साथ ही आपके लिखने का अंदाज़, एक-एक शब्द फ़िल्म को बिना देखे ही आँखों के सामने चलचित्र में बदलता है..😊
ReplyDeleteशुक्रिया ऋषभ...
DeleteZarur dekhunga Deepak sir!
ReplyDeleteउत्तम...
Deleteबढ़िया समीक्षा,,,, फ़िल्म देखने से खुद की रोक नहीं पाया । फ़िल्म देख के दोबारा समीक्षा पढ़ी और कमेंट लिखने से खुद को फिर रोक नहीं पाया।
ReplyDeleteशुक्रिया बंधु...
DeleteBahut achhi article hai...
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