Friday 26 October 2018

रिव्यू-बिना घी की खिचड़ी है ‘बाज़ार’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
इलाहाबाद के लौंडे को यह शहर छोटा लगता है, अपने पिता की ईमानदारी और वफादारी ओछी लगती है। उसे तो मुंबई जाना है, ऊंचा उड़ना है। अपने भगवान शकुन कोठारी की तरह पैसे कमाने हैं। मुंबई पहुंचने के छह ही महीने में वह शकुन का खास आदमी बन भी जाता है। लेकिन उसकी अंतरात्मा उसे शकुन की तरह गलत रास्ते पर चलने से रोक लेती है और वह अपने इस गुरु को ही सबक सिखाने में जुट जाता है।

इस कहानी को कागज़ पर पढ़िए, अच्छी लगती है। एक नौजवान जिसे अपना भगवान मानता है, जिसकी शागिर्दी में वह बड़ा आदमी बनना चाहता है, एक दिन उसी के खिलाफ हो जाता है। जो लड़की उसकी हमदर्द है, उसे उसके भगवान तक पहुंचाती है, वो उसकी नहीं, उसके गुरु की चेली निकलती है, वगैरह-वगैरह। लेकिन इस कहानी को जिस किस्म की स्क्रिप्ट में तब्दील किया गया है, वह सिर्फ ढेर सारी कन्फ्यूज़न से भरी हुई है बल्कि उसमें भरपूर विरोधाभास भी हैं। लौंडे को बड़ा बनना है तो बने, लेकिन अपने बाप की ईमानदारी का मज़ाक उड़ाने के बाद उसे खुद ईमानदारी के कीड़े ने कब और कैसे काटा? शेयर बाज़ार की बारीकियां समझने वाला शख्स इस कदर भोला होगा कि धंधे चलाने के टेढ़े-बांके रास्ते भी नहीं जानता होगा? और अचानक से हृदय-परिवर्तन...? दुनिया शकुन कोठारी को फ्रॉड बताती है तो क्या यह बात इस लौंडे को नहीं पता? शकुन गरीबी से उठ कर आया लेकिन रोजाना एक घटिया रेस्टोरेंट में साठ रुपए की थाली खाने जाता है क्योंकि... बड़ा ही बचकाना तर्क दिया उसने फिल्म में, रहने दीजिए। पैसों के पीछे भागता है लेकिन रिश्तों की कद्र भी करता है हालांकि फिल्म ऐसा नहीं कहती। उसकी बीवी को उसके रास्ते से चिढ़ क्यों है, यह भी स्पष्ट नहीं है। स्क्रिप्ट और किरदारों का यही भटकाव इसे औसत से ऊपर नहीं उठने देता।

गौरव के. चावला के डायरेक्शन में वो दम नहीं है कि आप उनके काम की तारीफ करें। वैसे भी गौरव छह औसत किस्म की फिल्मों के सहायक निर्देशक रह चुके हैं तो उनके काम में एक स्थाई किस्म का औसतपन साफ झलकता है। सैफ अली खान के काम में दम दिखता है। राधिका आप्टे अब इस तरह के रोल इतनी बार कर चुकी हैं कि उन्हें देख कर कोई अचंभा नहीं होता। चित्रांगदा सिंह सिर्फ सजावटी लगीं। स्वर्गीय अभिनेता विनोद मेहरा के बेटे रोहन मेहरा अपनी इस पहली फिल्म में औसत ही लगे। फिल्म के संगीत में हर किस्म का फ्लेवर डाला गया है। जमील अहमद का लिखा और राहत फतेह अली खान का गाया अधूरा लफ्ज़ हूं...सुकून देता है।

इस फिल्म के एक सीन में शकुन कोठारी अपनी पत्नी से कहता है कि तुम रईस की बेटी भला क्या जानो कि बिना घी की खिचड़ी कितनी बेस्वाद होती है। यह फिल्म भी वैसी ही है। दाल-चावल, मसाले तो हैं इसमें, बस उन्हें तर करने वाला वह घी ही नहीं है जो इसका स्वाद बढ़ाता।
अपनी रेटिंग-दो स्टार 
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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