Saturday, 22 December 2018

रिव्यू-धुएं की लकीर छोड़ती 'ज़ीरो'

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
पहले ही सीन में जब मेरठ का बउआ सिंह अखबार की  एक खबर सुनाने के एवज में अपने दोस्तों पर 500 रुपए के नोटों की पूरी गड्डी लुटा देता है तो पता चल जाता है कि आप एक 'फिल्म' देखने आए हैं। फिल्म-जिसका वास्तविकता से कोई नाता नहीं होता, वही वास्तविकता जो निर्देशक आनंद एल. राय और लेखक हिमांशु शर्मा की जोड़ी अपनी कई फिल्मों में देकर तारीफें और कामयाबी बटोर चुकी है। लेकिन इस बार इन्हें सुपरस्टार शाहरुख खान का साथ मिला है और अफसोस, कि इन जैसे लोग भी स्टार वाली चुंधियाहट से बच न सके। वैसे, फिल्म की कहानी 'फिल्मी' होते हुए भी बुरी नहीं है। बल्कि इस कहानी के 'हटके' होने की तारीफ होनी चाहिए और इस पर फिल्म बनाने और उसमें काम करने का जोखिम उठाने के लिए शाहरुख खान की उससे भी ज़्यादा। लेकिन 'हटके' वाली कहानियों के लिए जिस तरह की 'हटके' वाली स्क्रिप्ट की दरकार होती है, वो इस फिल्म में नहीं है और इसके लिए कसूरवार आनंद व हिमांशु की जोड़ी को ही ठहराया जाना चाहिए। कमाल यह नहीं कि आनंद, हिमांशु और शाहरुख पहली बार साथ आए हैं, कमाल तो यह है कि ये तीनों साथ आ कर भी वो कमाल नहीं कर पाए हैं, जिसकी इनसे उम्मीद थी।


मेरठ का साढ़े चार फुट का 'बौना' बउआ सिंह अपने बाप के पैसे और अपना मज़ाक उड़वाने से नहीं हिचकता। फिल्म स्टार बबिता कुमारी पर मरता है और व्हील-चेयर पर बैठी साइंटिस्ट आफिया से प्यार कर बैठता है। बबिता की आशिकी में मेरठ से मुंबई और आफिया के प्यार में मुंबई से अमेरिका तक जा पहुंचता है। अब चूंकि यह कहानी पूरी 'फिल्मी-फिल्मी' सी है सो, इसमें लॉजिक या यथार्थ के कण तलाशना बेमानी होगा। यह सोचना कि बउआ तारे कैसे तोड़ लेता है, लुटाने को इत्ते सारे पैसे कहां से ले आता है, कभी गंवार तो कभी समझदार कैसे हो जाता है, बबिता जैसी स्टार के इतने करीब कैसे जा पहुंचता है, झट से अमेरिका और वहां से मंगल की यात्रा... इस तरह के सवाल उठाए बिना, जो हो रहा है, उसे एन्जॉय किया जाए तो यह फिल्म सचमुच अच्छी लगती है। खासतौर से इंटरवल तक तो यह खूब अच्छे से समां बांधती है। लेकिन इंटरवल के बाद यह निखरने की बजाय बिखरने लगती है। इंटरवल तक का चुटीलापन और रफ्तार बाद में लापता हैं। ऐसा लगता है कि अचानक लेखक के हाथ से कलम छीन ली गई हो या फिर उसके दिमाग की बत्ती गुल हो गई हो। ज़रूरी नहीं कि फिल्मों में सब विश्वसनीय ही हो। जो हो रहा है वह अविश्वसनीय लगते हुए भी अच्छा लग सकता है बशर्ते कि वो दिलों को छुए। लेकिन यहां ऐसा नहीं हो पाया। कैटरीना वाला पूरा ट्रैक ही गैरज़रूरी लगता है। इसे सिर्फ शाहरुख-अनुष्का के मिलने-बिछड़ने और फिर मिलने तक की कहानी पर रखा जाता तो यह बेहतरीन और भावुक करने वाली रूमानी फिल्म हो सकती थी।

शाहरुख अपनी पुरानी अदाओं में ही बंधे रहे हैं और अच्छे लगते हैं। उन्हें अब एक लंबा ब्रेक लेकर खुद को चरित्र-भूमिकाओं की तरफ मोड़ना चाहिए। कैटरीना आश्चर्यजनक रूप से प्रभावित करती हैं। अनुष्का लगातार खुद को साबित कर रही हैं। मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब हमेशा की तरह असर छोड़ते हैं। तिग्मांशु धूलिया और बृजेंद्र काला भी जंचते हैं। इरशाद कामिल के गीत ज़रूरी असर छोड़ पाते हैं। सेट-लोकेशन, कैमरा, वी.एफ.एक्स. शानदार हैं। शाहरुख बौने ही लगते हैं और अपना एटिट्यूड कैरी करते हैं। थोड़ी एडिटिंग इसे और कस सकती थी।

यह फिल्म दिल में सीधे नहीं उतरती, उसे छू कर निकल जाती है। यह धुएं की ऐसी लकीर छोड़ती है जो नज़र तो आती है मगर जिसका असर ज़्यादा देर तक नहीं रह पाता। फिर भी यह इंटरवल तक पैसा वसूल और बाद में भी टाइम-पास तो करती ही है।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

3 comments:

  1. क्या बात है पा' जी।

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  2. बहुत सुंदर रिव्यू...👌

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  3. Ye hue na review wali bat...Or ye kamal sirf aap kar sakte hain...Thank u sir

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