Saturday, 8 December 2018

रिव्यू-‘केदारनाथ’-उफ्फ ये ‘शेखुलर’ मोहब्बत

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
अगर आपको पता चले कि 
2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ में आई उस प्रलयकारी बाढ़ के पीछे एक बड़ा कारण यह भी था कि उस रात मोहब्बत के दुश्मनों ने सच्चा प्यार करने वाले एक जोड़े को अलग कर दिया था, तो कैसा लगेगा? बात फिल्मी है लेकिन अगर कायदे सेकही जाए तो आपके भीतर छुपे प्रेमी-मन को झंझोड़ सकती है, भावुक कर सकती है कि उस रात उनके बिछड़ने पर बादल भी कुछ इस तरह रोए थे कि हज़ारों को लील गए थे। लेकिन कायदे सेकही जाए तब ! इस फिल्म में और सब कुछ है, वो कायदा’, वो सलीकाही नहीं है जो किसी कहानी को आपके दिल की गहराइयों तक कुछ इस तरह से ले जाता है कि आप उस के साथ बहने लगते हैं।


दिक्कत इस फिल्म की कहानी के साथ है। आपको केदारनाथ की पृष्ठभूमि में एक लव-स्टोरी दिखानी है। लेकिन आपको लड़की अमीर और लड़का गरीब दिखाना है ताकि कहानी में टकराव दिखे। चलिए ठीक है। लेकिन उसके लिए आप को लड़की वहां के पंडित की बेटी और लड़का अपने खच्चर और पीठ पर तीर्थ-यात्रियों को ढोने वाला मुसलमान क्यों दिखाना है भई? ओह, हो... सेकुलर दिखना चाहते हैं आप। चलिए यह भी ठीक है। लेकिन लड़की आपको बागी दिखानी है, अपने परिवार और पूरी दुनिया से भिड़ने वाली, उनसे बदतमीज़ी से बात करने वाली दिखानी है। पर लड़का... माशाल्लाह, दूध से धुला, शहद से नहाया, यात्रियों से पूरी मज़दूरी तक लेने वाला, भोले बाबा के मंदिर का घंटा बजा कर शुक्राना करने वाला, हर किसी की मदद को तैयार, किसी पर हाथ तो छोड़िए, ऊंची आवाज़ तक उठाने वाला, और यहां तक कि जब वहां पर लालची हिन्दूपंडितों ने होटल बनाने चाहे तो कुदरत का ख्याल रखने वाला पूरे शहर में एक अकेला यही मुसलमानलड़का ही निकला। अब लड़का इतना अच्छाहोगा तो लड़की को तो उससे मोहब्बत होगी ही न। लेकिन ये मोहब्बत महसूस किसे हो रही है? पर्दे से उतर कर इस मोहब्बत की आंच अगर देखने वाले के दिल तक पहुंचे, अगर इस प्रेमी-जोड़े की जुदाई पर दर्शक का दिल पसीजे, अगर इनकी मोहब्बत की रुसवाई पर ऑडियंस की आंखें भीगें, तो समझिए, ये मोहब्बत नहीं, मोहब्बत का ढोंग भर है, बस। अरे उस रातनायक-नायिका के बीच कोई भूलही दिखा देते और अंत में इनकी मोहब्बत की निशानी के तौर पर नायिका का केदार नाम का एक बच्चा ही दिखा देते तो इनकी मोहब्बत का कुछ अंजाम तो नज़र आता।

मात्र दो घंटे की यह फिल्म इंटरवल के बाद तक भी सिर्फ भूमिका ही बांधती रहती है। आप इंतज़ार ही करते रह जाते हैं कि कब इनकी मोहब्बत जवां होगी, कब प्रलय आएगी, और कहानी अपने क्लाइमैक्स तक पहुंच भी जाती है। हालांकि इसमें शक नहीं कि, आखिरी के बाढ़ के सीन लाजवाब हैं और दहलाते हैं। सुशांत सिंह राजपूत, नीतिश भारद्वाज, पूजा गौड़, अलका अमीन आदि का काम बुरा नहीं। लेकिन गुल्लू के किरदार में दिखे निशांत दहिया इन सब पर भारी पड़ते हैं। सैफ अली खान और अमृता सिंह की बेटी सारा अली खान अपनी इस पहली फिल्म से उम्मीदें जगाती हैं। उनके अंदर की ललक उनकी अदाओं और संवाद-अदायगी में दिखती है। गीत-संगीत साधारण है।

यह फिल्म तो सलीके की लव-स्टोरी दिखाती है, यह मोहब्बत के आड़े आने वाले समाज और उसकी बेड़ियों को खरी-खरी सुनाती है, और ही तरक्की के नाम पर केदारनाथ जैसी जगहों के अति-व्यवसायीकरण पर खुल कर बात करती है। हां, एक बात यह साफ कहती है कि ऐसे तीर्थस्थानों पर हिन्दुओं का वर्चस्व, गुंडागर्दी, दादागिरी होती है और वे लोग मुसलमानों पर अत्याचार करते हैं जिसे वे लोग चुपचाप सहते भी रहते हैं। इस किस्म की फिल्में दरअसल प्रपंच रचती हैं, ‘सेकुलरदिखने की आड़ में ये असल में हमारे समाज में दरार डालने का ही काम करती हैं। इनसे बचना चाहिए।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

8 comments:

  1. बहुत खूब लिखा आपने

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  2. Movie chahe bematlab ho,chahe boring ho par jo masala aap review ki recepie me dalte hain na...Uske swad ka kehna hi kya...

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    1. बहुत खूब मुकुल... शुक्रिया...

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  3. Bilkul sahi farmaya Mene Kl he 230 rs ka ticket Lakar film dekhi lekin film Mai Kuch bhi pura nahi tha sub Kuch adhura he tha

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