इस रिव्यू की ऊल-जलूल हैडिंग पढ़ कर आप अगर सोच रहे हैं कि यह क्या बला है, तो बता दें कि यह फिल्म यानी ‘बॉम्बेरिया’ भी ऐसी ही है-ऊल-जलूल, बिना सिर-पैर की,
बेमतलब,
बेमायने,
बेवकूफाना,
बर्बादाना...!
पहले कहानी के बारे में जान लीजिए। एक फिल्म स्टार के प्रचार का काम देखने वाली मेघना के हाथ से कोई शख्स उसका मोबाइल छीन कर ले जाता है। इस मोबाइल में एक सनसनीखेज वीडियो-क्लिप है। एक नौजवान उसकी मदद करता है। इस नौजवान की फैमिली उसकी शादी के लिए उसके पीछे पड़ी है और इस लड़की को उसकी प्रेमिका समझ लेती है। उधर मोबाइल लेकर भागे शख्स के पीछे एक पुलिस वाला पड़ा है क्योंकि...। उस पुलिस वाले के कंधे पर जेल में बैठे एक बड़े नेता का हाथ है जिसकी कल कोर्ट में पेशी है। लेकिन जिस गवाह को ये लोग तलाश रहे हैं, उसका कोई अता-पता नहीं है। इसके अलावा कहानी में ये-ये है, वो-वो है,
यह-यह हो रहा है,
वह-वह हो रहा है और सब कुछ इतनी तेज़ी से हो रहा है कि आप अपने सिर के बाल नोंच कर खुद से यह भी नहीं पूछ पाते कि भैय्ये,
यह सब क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है?
ऐसा नहीं है कि किसी शख्स के एक बुरे दिन वाली कहानियां, बहुत सारे किरदारों के किसी एक घटनाक्रम में आ मिलने की कहानियां, फटाफट घटती बहुत सारी घटनाओं वाली कहानियां, शुरू में कन्फ्यूज़न पैदा करके अंत आते-आते सब सही कर देने वाली कहानियां हमने देखी न हों या पसंद न की हों। सही तरह से कही गई ऐसी कहानियां अलग ही मज़ा देती हैं। शर्त यही है कि कहानी कुछ कहती हो और ‘सही तरह’
से कहती हो। लेकिन इस फिल्म के साथ यही दिक्कत है कि यह क्या दिखा रही है,
क्यों दिखा रही है,
यह शायद इसमें काम करने वाले भी न समझ पाएं। हर किसी का किरदार कुछ न कुछ कर रहा है,
लेकिन उस करने के पीछे हो क्या रहा है, यह स्पष्ट नहीं है। शर्त लगा कर कहा जा सकता है कि इस फिल्म की पूरी स्क्रिप्ट पढ़-सुन कर अच्छे-अच्छों के दिमाग के घोड़े खुल सकते हैं। फिर,
कहानी और स्क्रिप्ट को बेवकूफाना ढंग से ही लिखना काफी नहीं था जो इसे निर्देशित करने वाली पिया सुकन्या ने इसे और बर्बाद कर दिया। कहानी कहने की उनकी शैली बताती है कि उन्हें अभी किसी काबिल डायरेक्टर को लंबे समय तक असिस्ट करना चाहिए। ठीक है,
अलग बात को अलग हट कर ही कहना चाहिए, लेकिन इतना भी क्या हटना कि देखने वालों को आपकी फिल्म मज़ा देने की बजाय सज़ा लगने लगे?
राधिका आप्टे जिस सहजता से किरदार निभाती हैं,
उनसे इश्क-सा होने लगता है। काम बाकी लोगों का भी अच्छा है,
भले ही उनके किरदार किसी काम के न हों। इस तरह से फिल्में बनाना असल में बर्बादी है-पैसे की,
उर्जा की,
संसाधनों की,
उस आज़ादी की जो आपको बतौर फिल्मकार मिलती है। और हां,
दर्शकों के कीमती वक्त की भी।
अपनी रेटिंग-एक स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक
व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार
पत्रों,
पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए
हैं।)
👏👏👍
ReplyDeleteशुक्रिया...
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