Friday 11 January 2019

रिव्यू-किसे चाहिए ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
दस साल तक देश के प्रधानमंत्री रहने के बावजूद मनमोहन सिंह के लिए एक आम भारतीय के मन में यही सोच है कि वो महज एक कठपुतली थे जिन्हें कांग्रेस पार्टी ने अपने हित साधने के लिए कुर्सी सौंपी थी। उनके मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने उन पर एक किताब एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टरलिखी थी जिसे प्रधानमंत्री कार्यालय ने प्रचार पाने का हथकंडा कह कर नकार दिया था। मगर जानकारों का कहना है वह किताब सच्चाइयों का पुलिंदा है-पूरी नहीं तो काफी हद तक ही सही। यह फिल्म उसी किताब पर आधारित है। मगर पूरी तरह से नहीं।

हिन्दी में पॉलिटिकल सिनेमा की धारा कायदे से कभी पनप ही नहीं पाई। इसकी पहली वजह तो यही है कि फिल्म वालों ने दर्शकों को हर चीज़ में मसाले, ड्रामा और एंटरटेनमैंट की ऐसी लत डाल दी है कि उससे हट कर कुछ हज़म करने के लिए उन्हें खासा दम लगाना पड़ता है। दूसरी और बड़ी वजह है हमारे यहां नेताओं और उनके भक्तों की कमज़ोर पाचनशक्ति, जो उन्हें फिल्मी पर्दे पर ऐसा कुछ भी देखने, जज़्ब करने से रोकती है जो उनके पक्ष में नहीं है। हमारे यहां के राजनीतिक अखाड़े में इतने सारे खिलाड़ी हैं कि कौन-सी बात किसे चुभ जाए और वो लठ्ठ लेकर पीछे पड़ जाए, कोई नहीं जानता। सो, अपने फिल्म वाले भी जोखिम उठाने से बचते हुए राजनीतिक सिनेमा के नाम पर काल्पनिक कहानियां ही कहते दिखाई देते हैं। एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टरजैसी कोई फिल्म आती भी है तो इसे बनाने वालों की एकतरफा सोच इसमें दिखाई देने लगती है और ऐसे में यह कहानी कहने का माध्यम होकर सामने वाले पर हमला बोलने का हथकंडा ज़्यादा लगती है।

2004 से 2014 के बीच उन दस सालों में प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रधानमंत्री के जीवन के अलावा खुद प्रधानमंत्री के अंतर्मन में क्या चल रहा था, उसे यह फिल्म मोटे तौर पर सामने लाती है। लेकिन क्या एक आम दर्शक को इस बात से कोई फर्क पड़ता है और क्यों वो इन बातों को जानना चाहेगा? ऊपर से यह फिल्म इस कदर हल्के बजट में बनाई गई है कि इसकी कमज़ोरी और ज़्यादा उभर कर दिखती है।

एक्टिंग हर किसी ही बढ़िया रही है। अनुपम खेर ने डॉ. सिंह के हावभाव पकड़ने में कामयाबी पाई है। तमाम नेताओं की भूमिकाओं में उन्हीं के जैसे दिखाई देने वाले कलाकारों को लाने की मेहनत भी पर्दे पर दिखती है। खासतौर से सोनिया गांधी के रोल में सुज़ेन बर्नर्ट खासी असरदार रही हैं। संजय बारू के रोल में अक्षय खन्ना फिल्म की रौनक रहे हैं। वो पर्दे पर होते हैं तो यह फिल्म फिल्मलगती है वरना तो यह बस एक किताब को पर्दे पर देखने जैसा रूखा अनुभव ही देती है। कमी दरअसल पटकथा-लेखकों और निर्देशक विजय रत्नाकर गुट्टे की तरफ से रह गई जो किताब के पन्नों से निकली बातों का कायदे से सिनेमाई रूपांतरण नहीं कर सके। सिनेमा की अपनी अलग भाषा और जुदा शिल्प होता है। फिल्म को फिल्मनहीं बनाएंगे तो उसे भला कौन देखेगा? हां, फिल्म के संवाद कई जगह बहुत अच्छे हैं।

राजनीतिक गलियारों के अंदर की उठापटक भरी खबरों को पसंद करने वालों को यह फिल्म या तो अच्छी लगेगी या खराब। बाकियों को तो यह छुएगी ही नहीं।
अपनी रेटिंग-दो स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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