Saturday, 25 May 2019

रिव्यू-‘बेबी’ का बेबी-संस्करण है ‘इंडियाज़ मोस्ट वांटेड’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Review)
पुणे की जर्मन बेकरी समेत देश में कई जगह बम धमाकों के आरोपी रहे आतंकी यासीन भटकल को नेपाल से पकड़ कर लाने की घटना के इस फिल्मी संस्करण में आई.बी. यानी खुफिया ब्यूरो के उन एजेंटों की कहानी दिखाई गई है जिन्होंने इस काम को अंजाम दिया था। आई.बी. के कारनामों पर हमारी फिल्में ज़्यादा बात नहीं करती हैं। इनका मुख्य काम देश के भीतरी सुरक्षा तंत्र को मज़बूत करना और देश के अंदरूनी खतरों को भांपना होता है। यह फिल्म बिहार के ऐसे ही कुछ आई.बी. एजेंटों के बारे में दिखाती है जो अपने सीनियर अफसरों की मनाही के बावजूद बिना हथियार, बिना किसी सपोर्ट के टूरिस्ट बन कर नेपाल जाते हैं और वहां से उस आतंकी को पकड़ भी लाते हैं। फिल्म दिखाती है कि किस तरह से कुछ जुनूनी लोग अपनी और अपनों की परवाह किए बगैर, बिना पैसे या शोहरत की इच्छा के, देश की राह में बिछे कांटे उखाड़ते हैं।


हाल के बरसों में हमारी फिल्मों ने भारतीय खुफिया एजेंटों द्वारा देश या विदेश में जाकर किए जाने वाले खुफिया ऑपरेशनों के प्रति हमारी समझ को बढ़ाया है। फिल्में दिखाने लगी हैं कि किस तरह से कुछ सनकीलोग देश की खातिर अपनी जान, अपनी पहचान, अपना सब कुछ दांव पर लगा कर उन लोगों को पकड़ते हैं जो देश के लिए, देश के लोगों के लिए खतरा हैं। लेकिन इनमें से ज़्यादातर फिल्में टाईगर, फैंटम जैसे उन नायकों की कहानियां दिखाती हैं जो होते भी होंगे तो इतने फिल्मीनहीं होते होंगे। इंडियाज़ मोस्ट वांटेडइस मायने में हट कर है कि यह यथार्थ के करीब लगती है, इसके हीरो हीरोनहीं लगते, ये लोग पर्दे पर हीरोपंतीनहीं करते, ये खून में उबाल ला देने वाले संवाद नहीं बोलते और विदेशी धरती पर जाकर भी ये हैंडपंप नहीं उखाड़ते। लेकिन इस फिल्म की यही खूबियां इसकी कमियां भी बन जाती हैं। कैसे, आइए देखें।

माना कि यह फिल्म यथार्थवादी है, चीज़ों को उस तरह से दिखाती है जिस तरह से चीजे़ं होती होंगी। लेकिन निर्देशक राजकुमार गुप्ता को यह समझना चाहिए कि यह फिल्महै, जिसे दर्शकों के मनोरंजन के लिए बनाया गया है कि कोई डॉक्यूमैंटरी जो दर्शकों का ज्ञानवर्धन करने के लिए बनाई जाती है। इस किस्म की कहानी में जिस तरह के एक्शन, रोमांच, रफ्तार, संवादों आदि की ज़रूरत होती है, वह इसमें बहुत कम है और उससे तो दांत भी नहीं भीगते, मन क्या भरेगा। स्क्रिप्ट में एकरसता है और बहुत जगह यह अखरने-बिखरने लगती है।

फिल्म की लोकेशंस भाती हैं-पटना का गोलघर हो या नेपाल। एक अर्से के बाद नेपाल का इतना ज़्यादा इस्तेमाल हुआ है किसी हिन्दी फिल्म में। कैमरावर्क असरदार है। अर्जुन कपूर ऐसे ही किरदारों में जंचते हैं। लेकिन उन्हें अपनी चौड़ाई कम करने पर ध्यान देना होगा। ज़्यादातर किरदारों को कुछ खास मौके ही नहीं मिले, अलबत्ता कलाकारों के काम में कमी नहीं रही। राजेश शर्मा हर बार की तरह असरदार रहे। एक सीन में टी.वी. पर न्यूज़ पढ़ती हमारी मित्र पत्रकार भावना मुंजाल भी दिखी और जंची हैं। म्यूज़िक साधारण है।

अपने कलेवर और फ्लेवर में यह फिल्म अक्षय कुमार की बेबीसरीखी लगती है। लेकिन यह उस फिल्म का बेबी-संस्करणही है। इसे बड़ा बनाने के लिए जो ज़ोर लगना चाहिए था, उसका अभाव इसे एक औसत फिल्म ही बनाए रखता है। फिर भी पर्दे के पीछे रहने वाले ऐसे नायकों की इस किस्म की कहानियां दिखाई जानी ज़रूरी हैं ताकि सनद रहे कि देश और देशवासियों की सुरक्षा करना कितना ज़िम्मेदारी और जोखिम से भरा हुआ है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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