Wednesday 15 May 2019

रिव्यू-फिल्म नहीं, लानत है ‘स्टूडैंट ऑफ द ईयर 2’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
चलो-चलो एक फिल्म बनाएं। कुछ चमकदार चेहरे जुटाएं। उन चेहरों पर मेकअप की परतें चढ़ाएं। उन्हें रंगीन कपड़े पहनाएं। माहौल को चकाचौंध बनाएं। रही कहानी की बात, तो उसे भूल जाएं। चलो, पब्लिक को बेवकूफ बनाएं। चलो-चलो एक फिल्म बनाएं।

2012 में आई स्टुडैंट ऑफ ईयरकी ही तरह इस फिल्म में भी भरपूर रंगीनियत है। देहरादून के एक शानदार कॉलेज में दोस्ती-दुश्मनी निभाते युवाओं की कहानी है। एक तरफ हर हुनर में माहिर अपना गरीब हीरो है। दूसरी तरफ कॉलेज के सबसे हैंडसम और अमीर लौंडे (ज़ाहिर है कॉलेज के ट्रस्टी के बेटे) में भी हर हुनर है। डांस, रोमांस, गाना-बजाना, पीटना, कबड्डी वगैरह-वगैरह। गरीब की गर्लफ्रैंड इस अमीर पर मरती है और अमीर की नकचढ़ी बहन को गरीब अपनी तरफ खींच लेता है। पढ़ाई-वढ़ाई इस कॉलेज में होती नज़र नहीं आती। टीचर यहां के जोकरनुमा हैं। मोबाइल फोन पूरी फिल्म में किसी के पास नहीं दिखता। नेटवर्क प्रॉब्लम होगी शायद।

कहने को इस फिल्म की कहानी लिखने के लिए बाकायदा एक लेखक अरशद सैयद की सेवाएंली गई हैं जो इससे पहले भी कुछ एक पिलपिली कहानियां लिख चुके हैं। घिसी-पिटी इस कहानी के किरदार भी उतने ही घिसे-पिटे हैं। और जब ज़ोर सिर्फ चमक बिखेरने पर हो तो एक्टिंग के नाम पर भी शरीर ही दिखाए जाएंगे, भाव नहीं। टाईगर श्रॉफ की मौजूदगी का मतलब जिमनास्ट, डांस और एक्शन हो गया है। यह रास्ता उन्हें ऐसी ही फिल्मों के गटर में ले जाएगा। नई लड़कियों-तारा सुतारिया और अनन्या पांडेय (चंकी पांडेय की बिटिया) में आत्मविश्वास भरपूर है, एक्टिंग का हुनर भी ही जाएगा। तारा की लुक में लारा दत्ता जैसी झलक है। तारा के काम में ठहराव दिखता है। गीत-संगीत फिल्म के मिज़ाज की तरह रंग-बिरंगा है। गैरज़रूरी लेकिन आंखों को चुंधियाने वाला। मसूरी के रहने वाले लड़का-लड़की जब देहरादून के कॉलेज में तू कुड़ी दिल्ली शहर दी, मैं जट्ट लुधियाने दा...गा रहे हों तो फिल्म बनाने वालों की बुद्धि पर तरस ही खाया जा सकता है।

तो किस्सा--मुख्तसर यह दोस्तों, कि जब कहानी के नाम पर सड़े हुए आमों का शेक बना कर पिलाया जाए, जब रंगीन रैपर में लिपटी सस्ते चूरन की गोली चटाई जाए, जब बड़े-से डिब्बे में हवा पैक कर के दी जाए तो समझ लीजिए कि देने वाले के पास कुछ है नहीं और वो आपको, आपकी समझ को हल्के में लेकर बस अपनी जेबें भरने की फिराक में है। इस फिल्म को देख कर अफसोस होता है कि हिन्दी सिनेमा कहानी के नाम पर यह कैसी रंगीन दलदल परोस रहा है जिसमें धंसने को आप खुद खिंचे चले जाते हैं। अफसोस इस बात पर भी होता है कि कभी अपनी रंग-बिरंगी फिल्मों से एक नए किस्म के सिनेमा का आगाज़ करने वाला करण जौहर जैसा निर्देशक आज अपने बैनर की बनाई खोखली फिल्मों का निर्माता भर बन कर रह गया है। चमकती लोकेशन, चमकते कपड़े, चमकता सैट, चमकते चेहरे... सिर्फ यही सब देखना हो तो मर्ज़ी आपकी। वरना यह फिल्म, फिल्म नहीं बल्कि हमारे सिनेमा के मुंह पर लानत है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

16 comments:

  1. Isey kehte hain dharma productions ki dhulai

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    1. नहीं भाई, यह है सही को सही और गलत को गलत कहना, बस...

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  2. दीपिक जी की कलम एक ईमानदाराना कलम है जो बेवफाई करना भी चाहे तो नहीं कर पायेगी...टाइगर को गटर की तरफ कदम बढाते अच्छी नसीहत दे डाली ..वैसे एक बात है जो मैने टाइगर ने देखी..वो अपने सीनियर की बहुत इज़्ज़त करते हैं... दीपिक जी के फिल्मी रिव्यू किसी फ़क़ीर के सच्चे कौल* की तरह हैं...लव यू दीपक दुआ ..मेरे यार !!

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  3. दीपिक जी की कलम एक ईमानदाराना कलम है जो बेवफाई करना भी चाहे तो नहीं कर पायेगी...टाइगर को गटर की तरफ कदम बढाते अच्छी नसीहत दे डाली ..वैसे एक बात है जो मैने टाइगर ने देखी..वो अपने सीनियर की बहुत इज़्ज़त करते हैं... दीपिक जी के फिल्मी रिव्यू किसी फ़क़ीर के सच्चे कौल* की तरह हैं...लव यू दीपक दुआ ..मेरे यार !!

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  4. दीपक जी बहुत बढ़िया! बिल्कुल दरुस्त फरमाया है

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  5. मैं मुम्बई लेखन के बल पर गया था l यहाँ मौलिक लेखन की कोई कद्र नही l
    एक प्रसिद्ध फ़िल्म लेखक ने बताया कि हम कोई भी पुरानी फ़िल्म देखते हैं l इसमे क्या रह गया था वही सीन सोच कर डाल् देते हैं l एक नई फ़िल्म बन जाती है l
    हिन्दी फ़िल्म उद्योग अजीब गुरूर में जी रहा है l क्योंकि यहाँ हर तरह के लोग मिलते हैं l
    आपका रिव्यू सत्य से परिचय कराता है l

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  6. मैं मुम्बई लेखन के बल पर गया था l यहाँ मौलिक लेखन की कोई कद्र नही l
    एक प्रसिद्ध फ़िल्म लेखक ने बताया कि हम कोई भी पुरानी फ़िल्म देखते हैं l इसमे क्या रह गया था वही सीन सोच कर डाल् देते हैं l एक नई फ़िल्म बन जाती है l
    हिन्दी फ़िल्म उद्योग अजीब गुरूर में जी रहा है l क्योंकि यहाँ हर तरह के लोग मिलते हैं l
    आपका रिव्यू सत्य से परिचय कराता है l

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  7. शुक्रिया भाई साहब...

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