Saturday 18 January 2020

रिव्यू-थमी-थमी फिल्म है ‘जय मम्मी दी’

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
स्कूल-कॉलेज के ज़माने की दो सहेलियां किसी बात पर ऐसी बिगड़ीं कि दुश्मन बन गईं। लेकिन शादी के बाद भी रहती एक-दूसरे के पड़ोस में हैं। यहां से शिफ्ट होकर दोनों नए घर में गईं तो वो घर भी चिपके हुए निकले। वाह रे राईटर साहब, आपकी समझदानी को म्यूजियम में रखूं। खैर...! किस बात पर ये दोनों ऐसी पक्की दुश्मन बनी थीं, यह पूरी फिल्म में सामने नहीं आता। और जब अंत में सामने आता है तो दिल ढूंढता है चुल्लू भर पानी, कि मुंह धो कर नींद भगा लें। दिक्कत यह है कि इन दोनों के बेटे-बेटी को एक-दूजे से प्यार हो जाता है। क्यों और कैसे? यह राईटर साहब नहीं बताना चाहते, उनकी मर्ज़ी। अब इन दोनों ने आपस में करनी है शादी लेकिन अपनी-अपनी मम्मियों के आगे इनकी ही नहीं इनके बापों की भी नहीं चलती। इनकी मम्मियों की तो... जय।

हल्की-फुल्की कहानी लेकर उसमें हल्के-फुल्के किरदार रच कर एक हल्के-फुल्के मिज़ाज की फिल्म बनाने में कोई हर्ज़ नहीं है। कम बजट में तुरत-फुरत बन जाने वाली ऐसी फिल्मों में हास्य और एंटरटेनमैंट की इतनी खुराक तो होती ही है कि ये दर्शकों को लुभा कर अपनी नैया पार लगा लें। लेकिन इस फिल्म की कहानी में जो हल्कापन है, वह इसे आपके दिल-दिमाग तक नहीं पहुंचने देता। लड़का-लड़की अपनी मम्मियों से जितना घबराते हैं, वह जंचता नहीं और अंत में ये जिस तरह से अपने-अपने मंगेतर को धोखा देते हैं, वह पचता नहीं। लेखक ने उन परिवारों के नज़रिए से सोचने की कोशिश ही नहीं की जो अब समाज में अपमान झेलेंगे। माना कि फिल्म का फ्लेवर कॉमिक है, लेकिन कॉमेडी सिचुएशंस से पैदा होनी चाहिए, बैकग्राउंड में घटिया किस्म का लाउड म्यूज़िक बजाने से नहीं।

फिल्म की कहानी, स्क्रिप्ट, संवाद तो हल्के हैं ही, किरदार भी कायदे से खड़े नहीं किए गए। मेन लीड में लिए गए कलाकार भी हल्के ही हैं। अब आप सन्नी सिंह निर्जर या सोनाली सहगल से बहुत गाढ़े अभिनय की उम्मीद तो रख भी नहीं सकते न। और तो और दोनों मम्मियों को भी कोई कायदे के रोल नहीं मिले और इसीलिए सुप्रिया पाठक कपूर पूनम ढिल्लों ज़्यादातर समय बस मुंह बिचकातीं और भौहें मटकाती रहीं। नीरज सूद जैसे सधे हुए कलाकार तक को यूं ही निबटा दिया लेखक नवजोत गुलाटी ने। हां, गुलाटी का निर्देशन ठीक है। उन्हें सीन बनाना बखूबी आता है। बस, उन्हें कहानी थोड़ी और दमदार लेनी चाहिए थी।

दिल्ली के मिज़ाज को कायदे से दिखाती है यह फिल्म। रंग-बिरंगे गाने इसमें तड़का लगाते हैं। लेकिन जब पूरी डिश ही हल्की हो तो यह तड़का भी बेअसर लगता है। और हां, इस फिल्म का नाम भी इस पर कुछ खास फिट होता नहीं दिखता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

4 comments: