-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
सबसे पहले तो यह जान लीजिए कि अगर डिज़्नी पिक्चर्स वाले भारत से अपना बिस्तरा उठा कर नहीं भागते तो इस फिल्म का नाम ‘एबीसीडी 3’
होना था। ‘एबीसीडी’
सीरिज़ की पिछली दो फिल्मों जैसी ही कहानी, वही कलाकार, वही मुकाबले,
वही डांस... तो फिर नया क्या है?
नया है लंदन शहर, नया है कहानी में आने वाला एक ट्विस्ट। क्या...?
आइए,
जानते हैं।
लंदन में दो डांस ग्रुप हैं। भारतीयों का ‘स्ट्रीट डांसर’ जिसमें सहज (वरुण धवन) है और पाकिस्तानियों का ‘रूल ब्रेकर’ जिसमें इनायत (श्रद्धा कपूर) है। इन दोनों ग्रुप वालों की आपस में नहीं बनती। लेकिन रेस्टोरेंट चलाने वाले प्रभु अन्ना (प्रभु देवा) को लगता है कि अगर ये मिल जाएं तो ग्राउंड ज़ीरो का वो मुकाबला जीत सकते हैं जिसमें इनाम के तौर पर तगड़ी रकम मिलती है। इनायत को यह मुकाबला जीतना है एक नेक काम के लिए और सहज को अपने भाई की हार को जीत में बदलने के लिए। लेकिन ये दोनों आपस में मिलना नहीं चाहते। ज़ाहिर है कि अंत में ये मिलते हैं और जीतते भी हैं।
फिल्म की कहानी इतनी ज़्यादा साधारण और हल्की है कि आने वाले तमाम पलों का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। लिखने वालों ने इसकी स्क्रिप्ट को भी चलताऊ अंदाज़ में बस किसी तरह से लिख भर दिया है। संवाद भी कोई खास भारी-भरकम नहीं हैं। लेकिन एक डांस फिल्म में ये सब चाहिए किसे? ठीक है कि ‘एबीसीडी’ में एक अच्छी कहानी थी, उम्दा स्क्रिप्ट थी, भावनाओं का ज्वार था लेकिन यह भी सच है कि ‘एबीसीडी 2’ में ये सब बहुत हल्का था और फिर भी उसे पसंद किया गया था क्योंकि एक डांस फिल्म में और कुछ भले न हो, डांस, गाने,
म्यूज़िक शानदार होना चाहिए जो इस फिल्म में भी है।
निर्देशक रेमो डिसूज़ा इस बात के लिए तारीफ के हकदार हैं कि उन्होंने युवाओं को ‘एबीसीडी’ जैसी डांस केंद्रित फिल्म दी और इस कतार की अपनी हर अगली फिल्म से वह डांस का स्तर उठा रहे हैं। लेकिन बिना मजबूत कहानी के यह बड़े पर्दे पर ‘डांस इंडिया डांस’ का एक और सीज़न देखने जैसा ही अनुभव होता जा रहा है। फर्स्ट हॉफ में कहानी घिसटती है और फिल्म की लंबाई अखरने लगती है। सैकिंड हॉफ में यह थोड़ी गाढ़ी होती है और अंत में रोमांचित भी करती है। बतौर निर्देशक रेमो ने फिल्म का प्रवाह सहज रखा है। अंत में यह इमोशनल भी करती है और आंखें नम भी। वरुण, श्रद्धा और बाकी सब के किरदार हल्के हैं लेकिन डांस उम्दा। अपारशक्ति खुराना, मनोज पाहवा,
ज़रीना वहाब आदि जंचे हैं। फिल्म की सबसे बड़ी ‘देखने लायक’ चीज़ है नोरा फतेही। वह पर्दे पर आग लगाती हैं।
फिल्म में बहुत सारा नाच-गाना है जो आपको लुभाता है,
थिरकाता है। हां,
डांस की बहुत तेज़ रफ्तार कहीं-कहीं खटकती है। डांस परफॉर्मेंस शुरू से लेकर अंत आते-आते निखरती चली जाती हैं और क्लाइमैक्स में फिल्म अपना बैस्ट देकर खत्म होती है। एक डांस-मुकाबले वाली फिल्म में ऐसा ही होना चाहिए और इसीलिए यह फिल्म वो वाला मनोरंजन दे पाने के अपने मकसद में कामयाब दिखती है जो इस किस्म की फिल्म से दर्शकों को चाहिए होता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993
से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com)
के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Badiya 🌹
ReplyDeleteDance ke diwano ko movie dekhni chahiye
ReplyDeleteGajab...humne farmaaya h
ReplyDeleteIn lafzon ki dastaan kuch aisee h
ki andhere ki kayamat h aur ddhuan udaa k rahti h...Dhuaan to asaan nahi udaana sabke bas me, Fir bhi Deepak Dua g likhte h apni rasme...