-दीपक दुआ...
कॉलेज लाइफ की कहानियां, होस्टल लाइफ की कहानियां, दिल्ली शहर की कहानियां, आई.ए.एस. बनने वालों की कहानियां...। हाल के बरसों में नई वाली हिन्दी में इन विषयों पर इतना कुछ आ चुका है कि अब ऐसे किसी विषय पर आए उपन्यास को छूने का भी मन न करे। हिन्द युग्म से आए इस उपन्यास को भी पढ़ना शुरू किया तो लगा कि सत्य व्यास के ‘बनारस टॉकीज़’ और नीलोत्पल मृणाल के ‘डार्क हॉर्स’ को पढ़ने के बाद इसमें नया कुछ नहीं मिलने वाला। लेकिन धीरे-धीरे यह कहानी अपनी एक अलग राह तलाशने लगती है और बहुत जल्द उस राह पर सरपट भी हो जाती है।
यह जान कर हैरान हुआ जा सकता है कि इस उपन्यास के लेखक राहुल चावला पेशे से डॉक्टर हैं और दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में काम करते हुए मौजूदा समय में एक कोरोना-योद्धा की भूमिका निभा रहे हैं। डॉक्टर और हिन्दी साहित्य का रचयिता...? यह जान कर और हैरान हुआ जा सकता है कि राहुल हिन्दी फिल्मों की पटकथाएं भी लिखते हैं और उनकी लिखी दो स्क्रिप्ट मुंबई में प्रसिद्धि भी पा चुकी हैं। यह अलग बात है कि वह डॉक्टर बनने के ख्वाहिशमंद युवाओं के लिए किताबें और लेख भी लिखते हैं। लेकिन फिलहाल चर्चा उनकी किताब की।
कहानी 2008 के बाद की दिल्ली की है जब मैट्रो ट्रेन आ जाने के आने के बाद इस शहर और यहां के युवाओं का मिज़ाज बदल चुका था। लड़का (जिसका नाम नहीं बताया गया। कहां का है,
यह भी नहीं, बस पंजाबी है) लड़की (नाम तो इसका भी नहीं बताया गया, बस लखनऊ की है और ब्राह्मण है) से मिलता है, दोनों में पहले दोस्ती, फिर प्यार होता है और धीरे-धीरे इनकी कहानी में घर-परिवार,
समाज, देश, राजनीति जैसी तमाम वे चीज़ें भी आने लगती हैं जो दो प्यार करने वालों को शुरू-शुरू में अप्रासंगिक लगती हैं लेकिन होती ज़रूर हैं। लड़के का दक्षिणपंथी झुकाव और लड़की की वामपंथी सोच का टकराव भी कहानी का हिस्सा बनता है। एक प्रेमकथा में इस तरह से कहानी का फैलाव कम ही देखने में आता है। बड़ी बात है इस कहानी का अपनी टाइमलाइन पर टिके रहना। 15 अगस्त, 2010 को रविवार होना, उसी हफ्ते ‘पीपली लाइव’ का रिलीज़ होना जैसी ढेरों चीज़े हैं जिन पर पहले के लेखक गौर नहीं किया करते थे लेकिन आज के पाठक के तार्किक मिज़ाज के चलते अब ऐसा किया जाना ज़रूरी हो चला है।
राहुल अपनी भाषा शैली से चौंकाते हैं। उनके पास कहने को भरपूर बातें हैं और उन्हें व्यक्त करने के लिए बहुत सारा शब्द भंडार। अपने मिज़ाज से यह उपन्यास कभी किसी युवा की डायरी सरीखा लगता है तो कभी इसमें कविताओं का झरना बहने लगता है। राहुल ने इसे किसी एक शैली में बांधने से गुरेज किया है और यही इसकी खूबसूरती भी है। कहीं-कहीं भाषा का झोल तो कुछ एक जगह संवादों की अधिकता इसे उबाऊ बनाने लगती है लेकिन लेखक इस पर वापस पकड़ बना लेते हैं। कहानी के किरदारों में पाठक अपनी छवि तलाश ले तो इससे बड़ी बात नहीं हो सकती। इस उपन्यास को आधी हकीकत और आधा फसाना समझ कर पढ़िए, मज़ा आएगा।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं,
न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी.
से भी जुड़े हुए हैं।)
Shukriya Deepak ji is khoobsurat sameeksha ke liye :)
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