-दीपक दुआ...
शहर में चुनाव होने वाले हैं। राजनीति के दो माहिर खिलाड़ी इस बार ज़रा घबराए हुए से हैं क्योंकि हर तरफ समाजसेवी मोनिका देवी के चर्चे हैं। ये दोनों मिल कर विचार करते हैं कि मोनिका देवी को रास्ते से कैसे हटाया जाया। उसी रात कोई मोनिका देवी को उनके घर से उठा ले जाता है। कौन है वो?
किस के इशारे पर हुआ यह अपहरण? क्या इसके पीछे कोई और भी राज़ है?
कहानी दिलचस्प है। लेकिन अगर इस दिलचस्प कहानी पर मात्र सवा घंटे की स्क्रिप्ट भी कायदे से न लिखी जा सके तो क्या फायदा? एम.एक्स प्लेयर पर आई इस सीरिज़ में 18-19 मिनट के सिर्फ चार एपिसोड हैं लेकिन इन्हें देख कर ऐसा लगता है जैसे इन्हें लिखने में भी बेचारे लेखक को पसीना आ गया होगा। दरअसल इस किस्म की कहानियों का सबसे ज़रूरी मसाला होता है सस्पैंस और थ्रिल। इस कहानी में सस्पैंस तो बनाए रखा गया लेकिन थ्रिल वाला मज़ा सिरे से गायब है। वैसे भी इन मसालों को जिस कसी हुई स्क्रिप्ट और सधे हुए किरदारों की ज़रूरत होती है, वह इस सीरिज़ में हैं ही नहीं। अब ज़ीरो के आगे-पीछे चाहे जितने ज़ीरो लगा लीजिए, रहेगा तो वह ज़ीरो ही।
इक़बाल अहमद ने बचकाना लेखन किया है। केस सुलझाने के लिए बुलाया जाने वाला डिपार्टमैंट का सबसे काबिल, ईमानदार अफसर हमेशा सस्पैंड होकर घर पर ही क्यों बैठा होता है? किडनैप करने वाले ने दिमाग तो भरपूर लगाया लेकिन उसके बाद वह करना क्या चाहता था, यह आपने न दिखाया। और बाद में वह किडनैपर पागल-सा क्यों बना रहा? और उस तक पुलिस पहुंची भी कैसे, ‘ऊपर वाले’ की मेहरबानी से...! ऐसे एक नहीं तीन सौ पिछत्तीस सवाल इसे देखते हुए मन में उठेंगे और काफी मुमकिन है कि आप इस सीरिज़ का आधा-पौना एपिसोड देख कर इसके पिछवाड़े पर लात मार दें। अब हर कोई हम क्रिटिक्स की तरफ मजबूर तो नहीं होता न...!
रणविजय सिंह ने ड्रोन शॉट्स में तो खूब कैमरागिरी दिखाई लेकिन बाकी दृश्यों में वह साधारण रहे। और बतौर निर्देशक तो उनका काम इस कदर हल्का रहा कि उसकी ‘तारीफ’ में कुछ न ही कहा जाए तो बेहतर होगा। यही बात इस फिल्म के कलाकारों के बारे में भी कही जा सकती है। इंस्पैक्टर बने अहसान खान और मोनिका देवी के किरदार में आईं अमन संधू ही ‘कुछ हद तक’ जंचे। बाकी के कलाकार तो गली-मौहल्ले के किसी नाटक में काम करने जैसा अभिनय कर रहे थे। दिक्कत दरअसल उनके किरदार खड़े करने के साथ-साथ उनके लिए कायदे के संवाद लिखने की भी रही। जब लेखन ही लचर और बनावटी होगा तो ज़ाहिर है कि अदाकारी में भी बनावटीपन ही झलकेगा। कहानी का अंत बेहद कमज़ोर, घिसा-पिटा, अतिनाटकीय और थुलथुल है। दरअसल यह पूरी की पूरी सीरिज़ ही अपने नाम के मुताबिक है-बेबस, लाचार,
कमज़ोर, लचर।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि सिरीज़ कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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