राजस्थान की कथा-भूमि बहुत उर्वरक है। लेकिन नामालूम कारणों से हिन्दी सिनेमा यहां उपजी कहानियों के प्रति उदासीन रहा है। यह फिल्म इस सन्नाटे को कम करती है। राजस्थान में बसे चरणसिंह पथिक (जिनकी कहानी पर विशाल भारद्वाज ‘पटाखा’ बना चुके हैं) की कहानी पर राजस्थान के ही फिल्मकार गजेंद्र एस. श्रोत्रिय की बनाई यह फिल्म सिनेमा में गांव, गांव की कहानी और ग्रामीण किरदारों की कमी को दूर करने की छोटी ही सही,
मगर सार्थक कोशिश लगती है। शेमारू मी पर इस फिल्म को सिर्फ 89 रुपए में देखा जा सकता है।
राजस्थान के किसी गांव में पंचायतों के चुनाव सिर पर हैं। मौजूदा सरपंच के पोते और गांव के एक अन्य प्रभावशाली परिवार की पोती के आपसी रिश्ते में मर्दों की मूंछ आड़े आ जाती है। प्यार-मोहब्बत से ऊपर अपनी झूठी शान को रखने वाले इन लोगों की नज़रों में इनके बच्चों की खुशी, इनकी औरतों की इज़्ज़त से ज़्यादा प्यारी चीज़ इनका रुतबा होता है जो इन्हें कब कसाई सरीखा बना देता है, इन्हें भी पता नहीं चलता।
चरणसिंह पथिक की यह कहानी एक सच्ची घटना पर आधारित है। गौर करें तो ऐसी ‘सच्ची घटनाएं’ हमारे समाज में एक नहीं, बीसियों मिलेंगी जहां ‘ऑनर’ के लिए ‘किलिंग’ एक कड़वा मगर आम सच है। फिल्म की स्क्रिप्ट में कहीं-कहीं कुछ लचक है। इसे और कसा जाना चाहिए था। गजेंद्र इसमें थोड़ी और संवेदनाएं और गुस्सा डाल पाते तो यह कहानी और चुभती। कर्म और फल की थ्योरी की बात करती इस कहानी में नायक को भरपूर प्यार करने और अन्याय के लिए आवाज़ मुखर करने वाले किरदार को ही जला कर मार दिया जाना फिल्म के मैसेज के विरुद्ध लगता है। संवाद कहीं-कहीं बहुत असरदार हैं। निर्देशन में परिपक्वता दिखती है।
मीता वशिष्ठ सरीखी वरिष्ठ अभिनेत्री को लंबे समय बाद देखना अच्छा लगता है। रवि झांकल, अशोक बंठिया, मयूर मोरे, ऋचा मीणा जैसे सभी कलाकार अपने-अपने किरदारों में फिट नज़र आते हैं लेकिन सरपंच बने वी.के. शर्मा सबसे ज़्यादा असर छोड़ते हैं। गीत-संगीत कम है,
मगर जो है अच्छा है।
इस किस्म की कहानियां अमूमन बड़े पर्दे के लिए नहीं होतीं। होती भी हैं तो अक्सर ऐसी फिल्में फिल्म-समारोहों तक ही सिमट कर रह जाती हैं। यह तो भला हो निरंतर फैलते ओ.टी.टी. मंचों का, जो इन फिल्मों को सामने आने का मौका तो दे रहा है। न थिएटर जाने का झंझट, न शो-टाइम की दिक्कत। जिसे देखनी हो,
अपने मनमाफिक समय पर देख ले।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Aise movies to phle bnti thi
ReplyDeleteDirectors kuch naya kyo nhi sochte
बहुत ही सुंदर रिव्यू .ओ टी टी अच्छे सिनेमा के रास्ते आसान किये हैं .
ReplyDeleteNice review
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