Friday, 29 July 2016

रिव्यू--‘ढिशुम’-कुत्ते की दुम

-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
चलो मसाले घोलें।
एक बड़ा हीरो। है तो पुलिस वाला मगर कानून तोड़ने और हर किसी से भिड़ने में आगे।
एक छोटा हीरो। इसका काम है हंसाना और बड़े वाले को सपोर्ट करना।
एक बड़ा विलेन। कहने को दिमागदार मगर दिमाग चलाते दिखाया गया है हाथ-पांव।
एक छोटा विलेन। बाॅडी दिखाने वाला लेकिन हाथ-पांव चलाने का मौका आया तो फुस्स।
एक बड़ी हीरोइन। खूबसूरत, चुलबुली।
एक छोटी हीरोइन। दो सीन में नजर आई।
एक और हीरोइन। अंत में आकर गाना गा गई।
एक गैस्ट हीरो। इसके लिए यही बकवास रोल ही मिला था।
एक्शन है मगर दहलाता नहीं।
इमोशन हैं मगर छूते नहीं।
रोमांस है, मगर दिखता नहीं।
थ्रिल है मगर बेहद बचकाना।
सस्पैंस है लेकिन बहुत ही कच्चा।
काॅमेडी है मगर हंसाती नहीं।
अरे बाप रे, देशभक्ति भी है।
कुछ आइटमनुमा गाने, थोड़ा छिछोरापन।
चलो सब को मिक्स करें। लीजिए तैयार है यह फिल्म।
छोटी-सी कहानी के इर्द-गिर्द बुनी गई स्क्रिप्ट में इतने सारे छेद हैं कि छलनी भी शरमा जाए। किसी का भी किरदार कायदे से खड़ा नहीं हो पाया। एक्टिंग भी हर किसी की बेहद कमजोर। डेयरडेविल पुलिस वाले को सड़ियल दिखाना जरूरी होता है क्या? विदेश मंत्री हर फोन को तेज-तेज चलते हुए क्यों सुनती है?
डेविड धवन ने अपने कैरियर में ढेरों छिछोरी फिल्में बनाईं। हालांकि उन्हें पसंद करने वाले भी काफी दर्शक होते थे। पर क्या यह जरूरी है कि उनके बेटों में से एक छिछोरी एक्टिंग करे और दूसरा छिछोरी फिल्में बनाए?
अपनी रेटिंग-दो स्टार।
(
दीपक दुआ फिल्म समीक्षक पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक फिल्म क्रिटिक्स गिल्डके सदस्य हैं और रेडियो टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

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