-सौरभ आर्य... (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
फिल्म का एक दृश्य है जिसमें एक छोटी सी
कंस्ट्रक्शन कंपनी में काम करने वाला नायक रघुवरन (धनुष) देश की सबसे बड़ी कंस्ट्रक्शन
कंपनी की नौकरी के दिलकश ऑफर को ठुकराते हुए कहता है कि ‘मैं
शेर की दुम बनने से ज्यादा बिल्ली का सिर बनना पसंद करूंगा’।
ये अकेला दृश्य फिल्म की कहानी के नीचे बह रहे अंडर करंट को परिभाषित करने के
लिए काफी है। यहां अहंकार और बदमिजाजी का सामना ख़ुद्दारी और क़ाबिलियत से हो रहा
है। नतीजा सभी जानते हैं... नायक की जीत तय है। मगर एक दर्शक के लिए यह देखना महत्पूर्ण
है कि कहानी किन गलियों और नुक्कड़ों से होकर अपने अंत तक पहुंचेगी?
तमिल फिल्म ‘वीआईपी’ का सीक्वल है ‘वीआईपी-2’
जो हिन्दी में ‘वीआईपी-2 ललकार’ नाम से डब होकर आई
है। फिल्म का नायक बेहद योग्य इंजीनियर है जिसकी सबसे बड़ी दौलत उसकी क़ाबिलियत
और उस पर भरोसा करने वाले हज़ार इंजीनियरिंग ग्रेजुएट्स हैं। इन्हीं इंजीनियरिंग
ग्रेजुएट्स के सहारे रघुवरन का सपना है अपनी कंपनी खड़ी करने का। एक छोटी सी कंपनी
में इंजीनियरिंग की नौकरी करने वाले रघुवरन की कंस्ट्रक्शन की दुनिया की बेताज
बादशाह वसुंधरा से ठन जाती है। सो रघुवरन के रास्ते में भी हज़ार चुनौतियां हैं।
हालात कितने भी बदतर क्यों न हों... लेकिन रघुवरन बार-बार गिर कर भी खड़ा होता
है। हर हालत में नायक सही और गलत में से सही रास्ते को ही पकड़ता है फिर चाहे
इसकी कीमत मिट्टी में मिल जाना ही क्यों न हो। यही अंदाज़ रघुवरन को नायक बनाता
है और फिर यहां तो नायक दक्षिण भारतीय फिल्म का है सो उससे उस सब की अपेक्षा भी
की जाती है जो एक उत्तर भारतीय फिल्म के नायक के लिए लगभग असंभव हो। मसलन एक
दुबला पतला छरहरा बदन, गले में टाई बांधकर कम्प्यूटर पर काम करने वाला
बाबूजी टाइप सिविल इंजीनियर जरूरत पड़ने पर अपने से तीन गुना भारी और भयंकर गुंडों
को ताश के पत्तों की तरह हवा में उड़ा रहा है। एक पल को तो लगता है कि बॉस! कुछ
ज्यादा हो गया। पर अगले ही पल ख्याल आता है कि जैसे धनुष के कंधों पर शायद ग्रेट
रजनीकांत की विरासत को संभालने की जिम्मेदारी आन पड़ी हो। यूं भी साउथ की फिल्में
बिना मार-धाड़, टशनबाजी और धूम-धड़ाके के पूरी हो ही नहीं सकतीं।
तिस पर भी यह फिल्म मसालेदार मिक्स वेज की तरह तैयार की गई है। धनुष से जबरन
डांस, गाना और कॉमेडी कराई गई है। मगर कुछ है जो तमाम
कमियों के बावजूद हमें बांधे रखता है।
एक दर्शक के तौर पर मेरी दिलचस्पी इस बात
में है कि बार-बार तबाह होने वाला रघुवरन फीनिक्स की तरह कैसे अपनी ही राख से उठ
खड़ा होगा? यूं तो इस तरह की कहानियां भारतीय सिनेमा में सैकड़ों फिल्मों में आजमाई
जा चुकी हैं लेकिन यहां ट्रीटमेंट थोड़ा अलग है। अपने कमजोर पलों में भी नायक को सिम्पथी
की जरूरत नहीं है बल्कि जीरो पर आ जाने के बाद उसमें ग़ज़ब की ताकत नज़र आने लगती
है क्योंकि अब उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है। यही इसके नायक की यूएसपी है।
धनुष बार-बार अपने ससुर रजनीकांत के स्टाइल की याद दिलाते हैं।
फिल्म में कई
जगह सौंदर्या रजनीकांत का निर्देशन और धनुष की कहानी, दोनों लड़खड़ाते नज़र आते
हैं। देश की सबसे बड़ी कंपनी की मालकिन वसुंधरा को बराबरी की टक्कर देने वाला
रघुवरन हर रात अव्वल दर्जे के शराबियों की तरह पी कर घर लौटता है। फिर मियां-बीबी
का रोज का वही घिसा-पिटा नाटक। बीवियों के नाम पर वही पुराने घिसे-पिटे चुटकुले।
पूरी फिल्म को धनुष अपने कंधे पर उठा कर अंत तक ले गए हैं मगर वह दूसरों के कमजोर
कंधों की जिम्मेदारी तो नहीं उठा सकते न? फिल्म का एक भी गीत याद रखने लायक नहीं है।
फिल्म का अंत जरूरत से ज्यादा नौटंकी भरा है।
यह क्लास की
नहीं बल्कि मास की फिल्म है। इसलिए यदि हॉल में नायक की टशनभरी स्टाइल देख कर
ताली पीटना अच्छा लगता हो तो जरूर जाएं। बीच-बीच में कुछ धारदार डायलॉग भी
तालियों की चाह में ही पिरोए गए लगते हैं और उन पर ताली बनती भी है। बेहतरीन डबिंग और काजोल की मौजूदगी से पता ही नहीं
चलता कि ये कोई हिन्दी फिल्म न होकर तमिल फिल्म है। और हां,
फिल्म के अंतिम दृश्य में अपने संवाद ‘अब देखना मैं आगे-आगे क्या करता हूं’
के साथ धनुष ‘वीआईपी-3’ की भी गुंजाइश छोड़ गए हैं।
रेटिंग-ढ़ाई
स्टार
सौरभ आर्य केन्द्र सरकार में अनुवादक के पद पर कार्यरत हैं। फिल्मों,
साहित्य और यात्राओं में विशेष रुचि रखते हैं। इनके यात्रा-लेखन को ब्लॉग ‘यायावरी’
(http://travelwitharya.blogspot.in/)
पर पढ़ा जा सकता
है।
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