-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
गुजरात का वडोदरा शहर। एक आम मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार की 15 साल की लड़की इंसिया
(ज़ायरा वसीम) गाती है, चाहती है, सपने देखती है कि
पूरी दुनिया उसकी आवाज सुने। मगर कैसे? मां उसके सपनों का साथ देती है लेकिन तंगदिल बाप नहीं।
इंसिया को पता है कि उसकी मंज़िल कहां है लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए उसे कौन-सी ट्रेन
पकड़नी है, वह नहीं
जानती। एक दिन वह अपनी मां की सलाह पर रास्ता बदलती और बुर्का पहन कर, दुनिया से छुप कर
गाने लगती है। उसकी शोहरत आसमान छूने लगती है लेकिन जमीन पर अपने सपने सच करने का दंगल
उसे अभी भी लड़ना है।
फिल्म पहले ही सीन से जता-बता देती है कि यह आपको एक ‘कहानी’ दिखाने जा रही है।
एक ऐसी कहानी जिसमें मासूम सपने हैं, उन सपनों को सच करने की कोशिशें हैं, कुछ पा लेने की
खुशियां हैं, कुछ खो
देने का गम है। ऐसा नहीं है कि घर या बाहर से प्रताड़ित होने के बावजूद अपने सपनों को
सच करने में जुटे लोगों की ऐसी कहानियां हिन्दी फिल्मों में पहले न कही गई हों या यह
फिल्म कुछ अनोखा, अनदेखा
कह रही हो। इस फिल्म की खासियत यह है कि यह इंसिया की कहानी को बिना किसी लाग-लपेट, मसालों और मेलोड्रामा
के दिखाती है। इसके किरदार हद दर्जे के विश्वसनीय है। इंसिया की मां उसके प्रति जरूरत
से ज्यादा नर्म है, बाप जरूरत
से ज्यादा सख्त और ऐसे मां-बाप इसी समाज में बहुतायत से पाए जाते हैं। क्लास में उसके
साथ पढ़ने, उसे चाहने
और उसके लिए कुछ भी कर जाने वाले चिरंतन (तीर्थ शर्मा) जैसे दोस्त भी हमारे आसपास खूब
मिलते हैं। इन किरदारों के लिए चुने गए कलाकार अपने किरदारों में जिस तरह से समाए नजर
आते हैं, वे सब तालियां
पाने के हकदार हो जाते हैं। इंसिया की मां बनीं मेहर विज हों या पिता बने राज
अर्जुन, दोस्त तीर्थ
शर्मा या फिर जरा-सी देर के लिए आईं वकील मोना अंबेगांवकर या कोई भी कलाकार, हर कोई बस अपने
किरदार को जीता दिखाई देता है। ज़ायरा वसीम ने जिस तरह से एक 15 साल की लड़की के
किरदार को समझा और समझाया है, वह अवार्ड पाने लायक हैं। कहानी की पृष्ठभूमि में वडोदरा जैसे
शहर को रखा जाना भी इसे वास्तविक बनाता है। फिल्म में ऐसे बहुतेरे सीन हैं जो दिल को
छूते हैं, आंखों को
नम करते हैं और लेखक-निर्देशक अद्वैत चंदन की काबिलियत की गवाही देते हैं। इस फिल्म
के लिए अद्वैत बधाई के साथ-साथ सलामी के हकदार भी हैं।
फिल्म के सरप्राइज यानी आमिर खान की बात तो रह ही गई। कभी गुस्सैल, कभी छिछोरे तो कभी
फनी किस्म के म्यूजिक डायरेक्टर शक्ति कुमार के रोल में वह पर्दे पर आते ही रौनक लगा
देते हैं। मन करता है कि वह और ज्यादा देर पर्दे पर रहें लेकिन अगर ऐसा होता तो शायद
वह फिल्म के लिए सही न होता। कौसर मुनीर के लिखे गाने और अमित त्रिवेदी का संगीत फिल्म
को संबल देता है। हालांकि यह और गहरा होना चाहिए था। इंसिया की आवाज बनीं गायिका मेघना
मिश्रा का काम जबर्दस्त है।
कुछ एक जगह सिनेमाई छूट लेती, कुछ देर के लिए लचकती और अंत में थोड़ी ‘फिल्मी’ होती इस फिल्म को देखा जाना चाहिए... अपनों के साथ, अपने सपनों के साथ, क्योंकि सपने देखना
तो बेसिक होता है न!
अपनी रेटिंग-चार स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय।
मिजाज से घुमक्कड़। अपनी वेबसाइट ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार
पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए
नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Bahut umda aur sateek review
ReplyDeleteशुक्रिया...
DeleteThank u sir...Ek achhi movie ke achhe review ke lie
ReplyDeleteथैंक्स टू यू टू मुकुल...
Deleteबहुत ही सुन्दर फिल्म की बहुत ही सुन्दर समीक्षा. दुआ साहब का हार्दिक धन्यवाद. चन्द्र प्रकाश माथुर
ReplyDeleteआभार...
Deletevery informative post for me as I am always looking for new content that can help me and my knowledge grow better.
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