-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
शादी
वाली फिल्मों की लाइन लग चुकी है। फ़िल्म वालों की यह भेड़-चाल कुछ अच्छी तो
कई खराब फिल्में लेकर आने वाली है। लेकिन हर फिल्म 'तनु वेड्स मनु' नहीं
हो सकती, यह तय है। आप को कम मिठास वाली 'बरेली की बर्फी' से भी काम चलाना
होगा। हालांकि ये फिल्में कुछ अलग बात किसी अलग अंदाज़ में कहना चाहती हैं
लेकिन कोई न कोई कमी आड़े आकर इनकी उड़ान थाम लेती है। 'शादी में ज़रूर आना'
इसी दूसरी वाली भीड़ का ही हिस्सा है जिसे बनाने वालों की नीयत नेक है,
लेकिन कोशिशों में परफेक्शन की कमी इसे दिल-दिमाग पर छाने नहीं देती।
मिश्रा जी के बेटे और शुक्ला जी की बेटी की शादी तय होती है। लेकिन शादी की
रात को लड़की भाग जाती है। लड़का बदले की आग में जलता है और बरसों बाद उससे
एक अनोखा बदला भी लेता है।कहानी का अंत सुखद और ड्रामाई है।
कहानी में नयापन है। लड़के-लड़की के दरम्यां परवान चढ़ता शुरुआती रोमांस मीठा
लगता है। इनके अलग होने और वापस मिलने के पीछे का तीखा घटनाक्रम दिलचस्प
है। दिक्कत आती है कहानी के तीसरे हिस्से में, जहां ये फिर से मिल रहे
हैं, करीब आ रहे हैं। यह हिस्सा काफी खिंचा हुआ, उबाऊ, फीका और कुछ ज़्यादा
ही ड्रामाई लगता है। कायदे से इसे बदले वाली कहानी के ठीक बाद वाले मोड़ पर
खत्म हो जाना चाहिए था।
उत्तर प्रदेश सरकार की उदार नीतियों के चलते ऐसी ज़्यादातर फिल्में अब
यू.पी. में शूट हो रही हैं। कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ का माहौल, वहां की
ज़ुबान, रंग-बिरंगे किरदार ऐसी फिल्मों को दिलचस्प बनाते हैं। चुटीले संवाद
इसमें तड़का लगाते हैं। फिर गोविंद नामदेव, मनोज पाहवा, विपिन शर्मा, के.के.
रैना जैसे मंझे हुए कलाकारों की मौजूदगी से असर और गाढ़ा ही होता है। किसी
भी किरदार में गहरे उतर कर उसे ऊंचाई पर ले जाना राजकुमार राव को बखूबी आता
है। कृति खरबंदा को यूं ही मौके मिलते रहे तो वह दिलों पर छाने लगेंगी।
कृति की बहन के किरदार में आई अदाकारा ने कमाल का काम किया है।
फ़िल्म बताती है कि रिश्तों के दरम्यां संवादहीनता की स्थिति उलझनें पैदा
करती है, बढ़ाती है। सभ्रांत परिवारों में दहेज दे-ले कर जुड़ने वाले रिश्तों
की यह बात तो करती है लेकिन उस पर प्रहार नहीं कर पाती। कल तक लड़की से
बिना दहेज शादी की बात करने वाला लड़का दहेज में मिले कई लाख रुपये हज़म कर
रहे अपने परिवार वालों को कुछ नहीं कहता।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
अंतिम सुझाव दीजिए:
ReplyDeleteजाएं या नहीं।
आपका सुझाव बहुत मायने रखता है।
Healthy or kam spicy movie digest to sabko ho jati hai...Kehne ka tatparya ye hai ki movie dekhna chahiye...Thank u apke review ne menu or vanue dono bata dia...
ReplyDeleteबहुत सुंदर दीपक भाई जी,
ReplyDeleteफिल्म चाहे जैसी भी हो,
आपकी कलम की निगाहें उसे सरस बना जाती हैं।
अगर समीक्षा को रेटिंग दी जाए
तो आप पांच सितारों के मालिक हुए