Friday 3 November 2017

रिव्यू-क्लासिक फिल्में ‘इत्तेफाक’ नहीं होतीं

-दीपक दुआ...  (Featured in IMDb Critics Reviews)
दो कत्ल, दो कहानियां, लेकिन सच सिर्फ एक। या फिर वह भी नहीं। मर्डर मिस्ट्री फिल्मों का बरसों पुराना फ़ॉर्मूला फिर यह फिल्म तो बी.आर. चोपड़ा के बैनर से 1969 में आई राजेश खन्ना-नंदा वाली इसी नाम की फिल्म का ही रीमेक है। कहानी का ढांचा लगभग वही है कि अपनी बीवी के कत्ल का आरोपी हीरो पुलिस से बच कर भागते हुए एक ऐसे घर में जा पहुंचता है जहां हीरोइन के पति का कत्ल हुआ है। अब उस पर दो-दो खून का आरोप है। उसका कहना है कि कातिल वह नहीं जबकि सबूत और हालात उसके खिलाफ हैं।

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अभय चोपड़ा अगर उसी पुरानी कहानी को नए तरीके से फिल्मा देते तो बात कुछ अधूरी-सी रह जाती क्योंकि वह कहानी तो अब सब को पता है। सो, एक तो उन्होंने इसमें कुछ नए ट्विस्ट डालें हैं और दूजे उन्होंने इसे कहने का स्टाइल बदला है। फिल्म के आखिर में एक बड़ा ट्विस्ट आकर चौंकाता है लेकिन साथ ही कुछ हद तक निराश भी करता है कि इससे तो अपराध और अपराधी को ग्लैमराइज कर दिया गया।

इस किस्म की फिल्मों का सीधा और बड़ा उसूल रहता है कि जिस पर शक है, वही कातिल नहीं होता। अभय ने इस राज़ को बरकरार रखा है और यह उनकी सफलता है। स्क्रिप्ट को उन्होंने जिस तरह से पलटा है, उसमें उनकी मेहनत झलकती है। फिल्म के सैट्स और लोकेशन इसे रियल लुक देते हैं। लेकिन कुछ है जो इस फिल्म को आपके सिर पर नहीं चढ़ने देता, आपके दिलों में नहीं उतरने देता। कई सवाल अधूरे-से दिखते हैं और अंत में लाया गया ट्विस्ट जबरन-सा।

एक्टिंग के मोर्चे पर भी यह मात खाती है। सिद्धार्थ मल्होत्रा और सोनाक्षी सिन्हा, दोनों ही औसत अदाकार हैं और इन्हें मिलीं भूमिकाएं भी साधारण ही थीं जिन्हें ये साधारण तरीके से निबटाते नजर आए। दमदार रोल मिला पुलिस अफसर बने अक्षय खन्ना को और उन्होंने इसे दमदार ढंग से निभाया भी। पुलिस कर्मी बने सभी सहायक अभिनेता कहीं ज्यादा असरदार रहे।

फिल्म में गाने नहीं हैं। इनकी जरूरत भी नहीं थी। लेकिन ऐसी फिल्मों में बैकग्राउंड म्यूजिक बेहद प्रभावी होना चाहिए जो यहां नहीं है।

इस तरह की कहानी में जिस किस्म के पैनेपन और धार की जरूरत होती है, वह भी इसमें कम ही दिखी। ऐसे में कहीं-कहीं यह सूखी भी लगने लगती है। कुर्सी से चिपके रह कर मर्डर मिस्ट्री देखने का जबर्दस्त वाला शौक हो तो ही यह आपको पसंद आ सकती है वरना तो पुरानी वाली इत्तेफाकदेख कर ही काम चला लीजिए क्योंकि वैसी क्लासिक फिल्में इत्तेफाक से नहीं बना करतीं।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग सिनेयात्रा डॉट कॉम (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)

1 comment:

  1. Bahut sae...Is bar to apke review ka bhi andaz badla sa hai...Abhay chopra ka andaz shayad kisi ko pasand aye na aye ...Par apka andaz sabko bhaega...

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