-दीपक दुआ...
बनारस कहें, वाराणसी या काशी, लेखकों-कहानीकारों का यह प्रिय शहर है। यहां रह कर लिखने वाले और यहां रहने के बाद यहां के बारे में लिखने वाले बहुतेरे लेखक मिल जाएंगे। अपने दो कहानी-संकलनों ‘नमक स्वादानुसार’ और ‘जिंदगी आइसपाइस’ से ‘नई वाली हिन्दी के पोस्टर ब्वाय’ का विशेषण पा चुके निखिल सचान का यह पहला उपन्यास है जिसमें उन्होंने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में आई.आई.टी. से पढ़ने और वहां के होस्टल में रहने के अपने अनुभवों को पिरोया है। हालांकि निखिल उपन्यास की प्रस्तावना में ही साफ कर देते हैं कि वह कई साल से तीन कारणों से इस किताब को लिखने से बचते रहे। पहला-आई.आई.टी. की पृष्ठभूमि की वजह से इसे कहीं एक और ‘फाइव प्वाइंट समवन’ (चेतन भगत की किताब) न कह दिया जाए। दूसरा-सत्य व्यास की ‘बनारस टाॅकीज’ जैसी बेहतरीन किताब के बाद इसका स्वागत होगा या नहीं और तीसरा-इसका कथानक गूढ़-गंभीर न होने के कारण इसे दरकिनार न कर दिया जाए। देखा जाए तो निखिल की यह साफगोई सराहनीय है लेकिन कमजोरी मान लेने के बाद भी, कमजोरी तो कमजोरी ही रहती है न।
एक पाठक के नजरिए से देखें तो निखिल की इस किताब का कथानक सचमुच काफी कमजोर है। बी.एच.यू. के किसी होस्टल में रह कर पढ़ाई कम और लफंगई ज्यादा कर रहे कुछ युवकों की इस कहानी में ‘कहानी’ जैसा कुछ नहीं है। बातें हैं, बतंगड़ हैं, संवाद हैं, विवाद हैं लेकिन जब कहानी के सिरे किसी मकाम तक पहुंचते दिखाई नहीं देते तो खीज होती है। बनारस-कानपुर की ठेठ बोली, बनारसी गालियों और वहां के खांटी अंदाज का जो मजा सत्य व्यास ‘बनारस टाॅकीज’ में बरसा चुके हैं उसे लूट चुके पाठकों को तो यह उपन्यास एक सस्ती नकल भर ही लगेगा।
कहानी के मुख्य पात्र निशांत के बहाने से निखिल हालांकि अपने मन का कर गुजरने की बात कहना चाहते हैं लेकिन यह कहना ऐसा प्रभावी नहीं है कि असर छोड़ सके। निशांत के होस्टल से निकल कर घाट पर आकर रहने का वक्त ही इस उपन्यास का सबसे असरदार समय है। फिर निखिल के राजनीतिक पूर्वाग्रह भी इसे भटकाते हैं। जब वह बेवजह अवार्ड-वापसी और असहिष्णुता जैसे मुद्दे उठाते हैं तो पता चलता है कि बात 2015 की हो रही है लेकिन इस जमाने में बी.एच.यू. से इंजीनियरिंग कर रहे लड़कों की हरकतें और शौक कहानी को नब्बे के दशक में ले जाते हैं। कहानी के समय-काल का यह अटपटापन इसे और कमजोर बनाता है। निखिल के ‘भक्त’ बन चुके पाठक इसे सराहें तो सराहें, वरना तो इस सतही कहानी में ‘कहानी’ जैसा कुछ है नहीं।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार
हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय।
मिजाज से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित
लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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