-दीपक दुआ...
विशाखा सिंह टीचर बनना चाहती थीं। लेकिन किस्मत उन्हें फिल्मों में ले आई। आशुतोष गोवारीकर की फिल्म ‘खेलें हम जी जान से’ में आने से पहले विशाखा साऊथ में कुछ फिल्में कर आई थीं। ‘फुकरे’, ‘अंकुर अरोड़ा मर्डर केस’, ‘बजाते रहो’ जैसी फिल्मों के बाद वह प्रोडक्शन की तरफ चली गईं। अब वह ‘फुकरे रिटर्न्स’ में आ रही हैं। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश-
-‘फुकरे रिटर्न्स’ पिछली वाली ‘फुकरे’ का सीक्वेल है या यह कोई अलग ही कहानी है?
-जी नहीं, यह एक सीक्वेल है जिसमें पिछली वाली कहानी अब आगे चल रही है। सारे किरदार वही पुराने वाले ही हैं। उस फिल्म में चूचा को आने वाले सपने से लॉटरी का नंबर निकलता था और अब उसे भविष्य में होने वाली घटनाएं दिखने लगी हैं। मैं कहना चाहूंगी कि जो मस्ती और जो धमाल आपने पिछली फिल्म में देखा है, उससे कहीं ज्यादा आपको इस फिल्म में देखने को मिलेगा।
-किरदारों की भीड़ के बीच काम करने का अनुभव कैसा रहा?
-बहुत मजा आया। ज्यादा लोग हों तो हर कोई एक-दूसरे से बढ़िया काम करने की कोशिश करता है और इससे फायदा आखिर फिल्म का ही होता है। पुलकित सम्राट, वरुण शर्मा, अली फजल, ऋचा चड्ढा, पंकज त्रिपाठी जैसे हम तमाम कलाकारों की आपसी ट्यूनिंग इतनी बढ़िया है कि काम करते हुए पता ही नहीं चला कि हम काम कर रहे हैं या मस्ती। रही भीड़ की बात, तो इस किस्म की फिल्म में किसी किरदार से ज्यादा कहानी का महत्व होता है और हम सब उसी को सपोर्ट कर रहे होते हैं।
-क्या आप आसानी से इस फिल्म को करने के लिए तैयार हो गई थीं?
-नहीं। जब इस फिल्म का ऑफर आया तब मेरे मन में यह असमंजस था कि मैं इसे करूं या नहीं करूं क्योंकि अब मैं बतौर प्रोड्यूसर ज्यादा बिजी रहती हूं। लेकिन फिर मैंने सोचा कि मस्ती वाली फिल्म है और पुराने दोस्तों के साथ काम करने को मिलेगा तो मैं राजी हो गई। फिर इस बार पंकज सर के साथ भी सीन करने को मिले तो और ज्यादा मजा आया। उनसे तो बहुत कुछ सीखने को मिला।
-अपने एक्टिंग कैरियर को लेकर आप काफी उदासीन-सी नजर आती हैं?
-दरअसल मुझे इस बात से कभी फर्क ही नहीं पड़ा कि मेरे पास ज्यादा फिल्में हैं या कम। जो फिल्में हैं, उनमें मेरा रोल लंबा है या छोटा। मैंने हमेशा वही किया जो मुझे अच्छा किया।
-बतौर प्रोड्यूसर आपने अब तक क्या कुछ बनाया है?
-पहले तो मैंने ‘पैडलर्स’ बनाई थी। नवाजुद्दीन वाली ‘हरामखोर’ में मैं भी एक प्रोड्यूसर थी। फिर पिछले साल मैंने उत्तर-पूर्व की खासी बोली में एक फिल्म ‘ओनाटाह’ बनाई थी जिसे नेशनल अवार्ड मिला था। अब मैं इस फिल्म का हिन्दी रीमेक भी बना रही हूं। इसके अलावा सतीश कौशिक जी के साथ मैं जल्द एक मराठी फिल्म बनाने जा रही हूं।
-पर्दे पर खुद को देखने की ख्वाहिश को कैसे काबू कर लिया?
-यहां काफी कुछ आपकी उम्र पर भी निर्भर करता है। जब मैंने शुरूआत की थी तो जो मुझे सही लगता गया चाहे वह हिन्दी में था या साऊथ में, मैं करती गई। बाद में मुझे अहसास हुआ कि ऐसे नहीं होता है। आपको यहां पूरी योजना बना कर आगे बढ़ना होता है। यहां फिल्में करने से ज्यादा यह मायने रखता है कि आप कैसे कपड़े पहन कर किस इवेंट में गए और खुद को खबरों में बनाए रखने के लिए आपने क्या किया। यह सब मेरे बस का नहीं था और तब मैंने तय किया कि मैं सिर्फ चुनिंदा फिल्में ही करूंगी। मेरे अंदर यह चाव नहीं है कि मैं बस खुद को पर्दे पर देखूं, चाहे वह कैसी भी फिल्म हो।
-सिनेमा भी आप काफी अलग किस्म का सिनेमा बना रही हैं?
-दरअसल मैं उस तरह की फिल्में बनाना चाहती हूं जिनमें मैं कभी खुद काम करना चाहती थी। किसी को तो ढंग की फिल्में बनानी पड़ेंगी न। तो मैं वैसी फिल्में बना रही हूं और चाहती हूं कि इस तरह का सिनेमा आगे बढ़े जो लोगों पर असर छोड़े और सिनेमा के प्रति उनकी सोच में बदलाव लाए। फिर यह भी है कि अब यंग ऑडियंस का टेस्ट बदल रहा है। वह इंटरनेशनल सिनेमा देखता है तो उसे यहां भी ऐसी ही फिल्में चाहिएं जो उसके दिमाग को संतुष्ट कर सकें।
-बिल्कुल है। लेकिन कल को जब आप पीछे मुड़ कर अपने काम को देखें तो अगर आपको उस पर गर्व न हो तो क्या फायदा उस काम का। ‘फुकरे’ के बाद मुझे करीब पचास फिल्मों के आॅफर आए लेकिन मेरे लिए वह जरूरी नहीं था कि मैंने कितनी फिल्मों में काम किया। मैं चाहती हूं कि बतौर एक्ट्रैस या बतौर प्रोड्यूसर जब कुछ साल बाद मैं पलट कर देखूं तो सबसे पहले तो मुझे अपने काम पर फख्र हो। मुझे लोगों की परवाह नहीं है, लेकिन खुद से तो मैं नजरें नहीं चुरा सकती न। रही जोखिम की बात, तो अगर ऐसी फिल्में अच्छे ढंग से सीमित बजट में बनाई जाएं तो ये नुकसान में नहीं रहतीं।
-तो अब क्या इरादा है। एक्टिंग छोड़ कर सिर्फ प्रोडक्शन, या डायरेक्टर भी बनना है?
-डायरेक्टर बनने के बारे में तो अभी तक नहीं सोचा है। किस्मत में हुआ तो किसी दिन इसके बारे में भी सोचूंगी। फिलहाल तो सिर्फ प्रोडक्शन पर ही ध्यान है क्योंकि यह भी एक बहुत सिरदर्दी का काम है और यह मुझे तब समझ में आया जब मैं खुद प्रोड्यूसर बनी। बीच-बीच में जब मुझे छुट्टी मनाने का मन करेगा तो मैं बतौर एक्टर कोई फिल्म कर लिया करूंगी।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार
हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय।
मिजाज से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित
लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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